ब्लॉग: अखिलेश को मायावती के साथ की दरकार

By अभय कुमार दुबे | Published: January 29, 2024 10:27 AM2024-01-29T10:27:21+5:302024-01-29T10:30:52+5:30

अखिलेश यादव को भरोसा है कि उनका 'पीडीए' फार्मूला (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) भाजपा को पराजित कर सकता है। 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी यादव बिरादरी के अस्सी फीसदी से ज्यादा वोट प्राप्त किए थे। मुसलमानों ने भी उन्हें असाधारण समर्थन दिया था।

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फाइल फोटो

Highlightsअखिलेश यादव ने दावा किया है कि इंडिया गठबंधन उत्तरप्रदेश में इतिहास बना देगा2022 विधानसभा चुनाव में उन्हें अपनी यादव बिरादरी के 80 फीसदी से ज्यादा वोट प्राप्त हुएमुसलमानों ने भी समाजवादी पार्टी को असाधारण समर्थन दिया था

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने दावा किया है कि इंडिया गठबंधन उत्तरप्रदेश में इतिहास बना देगा। उन्हें भरोसा है कि उनका 'पीडीए' फार्मूला (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) भाजपा को पराजित कर सकता है। 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी यादव बिरादरी के अस्सी फीसदी से ज्यादा वोट प्राप्त किए थे। मुसलमानों ने भी उन्हें असाधारण समर्थन दिया था। यादवों के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ नेता भी उनके साथ थे। इस कारण से वे पिछड़े वोटों की एक हद तक एकता कर पाये थे। लेकिन क्या उन्हें दलित वोट भी मिले थे? सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव-उपरांत सर्वेक्षण पर भरोसा करें तो अखिलेश को जाटव वोट नाममात्र के ही मिले थे, पर गैर-जाटव दलितों के एक छोटे हिस्से ने उन्हें समर्थन दिया था।

अगर कांग्रेस ने मंजूर कर लिया तो ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में विपक्षी गठजोड़ के घटक दलों के बीच सीटों का तालमेल हो गया है। इसके मुताबिक कांग्रेस के लिए समाजवादी पार्टी ने 11 सीटें छोड़ी हैं, और राष्ट्रीय लोक दल के लिए सात। यानी, 62 सीटों पर सपा स्वयं लड़ेगी। यह लेख लिखे जाने तक बसपा विपक्षी गठबंधन में आने के लिए तैयार नहीं है। अगर मायावती ने फरवरी के आखिरी हफ्ते तक अपने रवैये पर पुनर्विचार न किया तो राजनीतिक परिस्थिति ऐसी ही रहेगी। लेकिन अगर मायावती ने अचानक विपक्ष के साथ जाने का निर्णय किया तो सीटों का यह तालमेल दोबारा होगा। या यह भी हो सकता है कि सपा बासठ सीटों में से आधी बसपा को दे दे।

सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव गैर-भाजपा पार्टियों, खासकर सपा के गवर्नेंस और विकास के रिकॉर्ड के दम पर आम वोटरों से समर्थन प्राप्त कर सकते हैं? और, उप्र की मौजूदा सरकार का इस संबंध में रिकॉर्ड कैसा है? लगभग दो साल पहले वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार नीरज कौशल ने रिजर्व बैंक के आंकड़ों की हैंडबुक का सहारा लेकर यह पता लगाने की कोशिश की थी कि आदित्यनाथ के 2017 से 2022 तक के शासनकाल में उत्तर प्रदेश का आर्थिक हुलिया कैसा रहा था।

नीरज कौशल के विश्लेषण का एक और दिलचस्प पहलू अखिलेश यादव के कार्यकाल से आदित्यनाथ के कार्यकाल की तुलना का था। अखिलेश के शासनकाल में उप्र ने 7 फीसदी की औसत वृद्धि दर दिखाई और आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश केवल 5 फीसदी आगे बढ़ता हुआ दिखता है। अखिलेश की सरकार ने अपने आखिरी 2 वर्षों में 10 फीसदी की जबरदस्त वृद्धि दर दिखाई थी। लेकिन वे बुरी तरह से चुनाव हार गए थे। क्यों? इसलिए कि उनका गवर्नेंस का रिकॉर्ड (खासकर कानून-व्यवस्था के मामले में) दुुरुस्त नहीं था।

दलित और अति पिछड़े वाटों को अपनी ओर खींचने में भाजपा जैसे ही कामयाब होती है, उप्र में उसका जनाधार अपराजेय हो जाता है। ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य, भूमिहार और कायस्थ वोटों के साथ जैसे ही ये वोट जुड़ते हैं, उप्र के खास हालात में भाजपा बहुत ताकतवर हो जाती है। जाहिर है कि लोकसभा चुनाव में बिना मायावती के योगदान के अखिलेश का 'पीडीए' केवल 'पीए' ही रह जाने के लिए अभिशप्त है। उत्तर प्रदेश में उनका राह बहुत कठिन है।

Web Title: Akhilesh needs Mayawati support

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