Ram Janmotsav: अपने भीतर के राम को जगाने की जरूरत?, समाज की सांस्कृतिक जीवन यात्रा में विशेष महत्व
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: April 5, 2025 05:11 IST2025-04-05T05:11:23+5:302025-04-05T05:11:23+5:30
Ram Janmotsav: विधि और निषेध अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसका स्पष्टीकरण कराते हुए मर्यादाएं जीवन में संतुलन स्थापित करती हैं.

सांकेतिक फोटो
Ram Janmotsav: भारतीय नववर्ष के आरंभ में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि प्रतिवर्ष राम-जन्मोत्सव के रूप में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है. इस उत्सव का व्यापक भारतीय जन समाज की सांस्कृतिक जीवन यात्रा में विशेष महत्व है. घट-घट व्यापी अंतर्यामी परमात्मा का श्रीराम के मानुष रूप में लोकावतरण एक रोमांचकारी अवसर होता है जब हम श्रीराम को अपने जीवन में आस-पास पाने की लालसा लिए राम-नवमी मनाते हैं. यह मानवीय चेतना के ऊर्ध्वमुखी परिष्कार का एक विलक्षण सोपान बन जाता है. श्रीराम का आदर्श चरित इस अर्थ में विलक्षण है कि उसमें स्वयं अपने उदाहरणों द्वारा ही मर्यादाओं की व्यावहारिक स्तर पर व्याख्या की जाती है. विधि और निषेध अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसका स्पष्टीकरण कराते हुए मर्यादाएं जीवन में संतुलन स्थापित करती हैं.
यह कुछ वैसे ही है जैसे नदी के दो तट यह बताते हैं कि नदी की धारा कैसे मर्यादा का आदर करते हुए एक सीमा में ही बहे. नदी में बाढ़ आने पर उफनती नदी के निकट का सारा क्षेत्र जलमग्न हो जाता है और आस-पास की फसल और जनजीवन को भी भारी नुकसान पहुंचता है. वैसे ही मर्यादाओं का उल्लंघन भी सामाजिक जीवन के लिए बड़ा घातक सिद्ध होता है.
जब मर्यादाओं की सीमाएं टूटती हैं तो सामान्य जनजीवन प्रतिबंधित और अस्त-व्यस्त हो जाता है. चूंकि सामान्य लोग श्रेष्ठ जनों या बड़ों का अनुगमन करते हैं इसलिए उच्च पदस्थ लोगों का यह दायित्व होता है कि वे न केवल मर्यादा का पालन करें बल्कि आवश्यकतानुसार नई मर्यादाओं को भी स्थापित करें.
अतएव मर्यादा का हनन श्रीराम को किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है. इसके लिए वे कोई भी कष्ट उठाने के लिए और अपने किसी भी हित को त्यागने के लिए तैयार रहते हैं. अपने प्रिय जनों का साहचर्य सामान्य व्यक्ति के लिए बड़ा काम्य होता है.
श्रीराम हैं कि राजपाट ही नहीं अपितु पूज्य पिता और परम प्रिय पत्नी दोनों के साहचर्य को खोना पड़ता है. उनको इन दोनों से कई अवसरों पर दारुण वियोग सहन करना पड़ा. इन सब परिस्थितियों में वे अविचलित बने रहे और अपने कार्य और दायित्व के निर्वाह से कभी भी विमुख नहीं हुए.