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प्रकाश पर्व पर संजय भगत का ब्लॉग: नानक उत्तम-नीच न कोई

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 19, 2021 13:53 IST

उनका हर जगह पहला संदेश होता था, ‘नानक उत्तम-नीच न कोई’ यानी कोई भी व्यक्ति जन्म से महान या नीच नहीं होता, बल्कि अपने कर्मो से होता है।

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गुरुनानक देवजी सिख धर्म के प्रवर्तक और प्रथम गुरु हैं। वे कालूचंद मेहता और तृप्ता देवी की इकलौती संतान थे। नानकदेव जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा संवत् 1526 अर्थात सन् 1469 को तलवंडी के राई बोई गांव में हुआ। बाद में इस गांव का नाम ननकानासाहब रखा गया जो अब आज के पाकिस्तान में है। नानकजी की पढ़ाई घर में ही हुई। बचपन में ही गणित व हिंदी, पारसी, अरबी भाषाओं की पढ़ाई की।

गुरुनानक जी का स्वभाव धार्मिक व सात्विक था। उनका वक्त साधु-संतों के सान्निध्य में बीतता था। बचपन से ही उनका रुझान धार्मिकता की ओर था। गुरुनानक जी की शादी 18 वर्ष की उम्र में 1487 को बटाला के मूलचंद खत्री की पुत्री सुलखनी (सुलक्षणी) से हुआ। उनके दो पुत्र थे-श्रीचंद और लक्ष्मीचंद। उनका ध्यान संसार में नहीं बल्कि आध्यात्मिकता की ओर था। हिंदू और इस्लाम धर्म की पढ़ाई के बाद उन्होंने परमेश्वर, भक्तिमार्ग, मोक्ष इत्यादि का बारीकी से मनन किया।

उम्र के प्रारंभिक दौर में एक बार नानक देवजी नदी में नहाने के बाद जब गुफा में ध्यान कर रहे थे तो वे समाधि की अवस्था में पहुंच गए। इस अवस्था में वे तीन दिन तक रहे। लोगों को लगा कि नानकजी बह गए। नानकजी जब गुफा से बाहर आए तो उन्होंने कहा ‘कोई हिंदू नहीं, कोई मुस्लिम नहीं’ इसका अर्थ यह हुआ कि सभी इंसान आदमी हैं और भगवान के बच्चे हैं। गुरु नानकजी ने अपने उपदेश में पांच तत्व बताए हैं - 1. नाम व गान : ईश्वर नाम का उच्चारण करके उनका गुणगान करना। 2. दान : सबको दान धर्म करना।3. स्नान : सबेरे स्नान करके स्वच्छ होना।4. सेवा : ईश्वर व मानव की सेवा करना।5 . स्मरण : भगवान की कृपा के लिए ईश्वर का नाम स्मरण करना व उनकी प्रार्थना करना।

सुल्तानपुर के शासकीय अनाज की दुकान पर अनाज की नाप-तौल करते वक्त नानकजी 1, 2, 3, .. 11, 12, 13, 1 से 13 तक ही उच्चारण करते थे। ऐसा करते हुए ही उनको सत्धर्म का साक्षात्कार हुआ। गुरु नानक देव ने साक्षात्कार के बाद 1497 से मुख्य रूप से चार यात्रएं कीं। पूरब की यात्र (1497 से 1509)- बांग्लादेश व ब्रह्मदेश तक। दक्षिण की ओर (1510 से 1515) श्रीलंका तक, उत्तर की ओर (1515 से 1517 तक) हिमालय, तिब्बत, चीन तक और पश्चिम की ओर (1517 से 1521)-ईरान, इराक, बगदाद, मक्का, मदीना और अफगानिस्तान तक। 

इन यात्रओं के दरम्यान गुरुनानक जी ने अलग-अलग धर्म के साधु-संतों से विचार-विनिमय किया, संवाद किया। गलत रूढ़ि और परंपरा को समाप्त करने का प्रयास किया। गुरु नानक के शिष्य यानी सिख और शिष्य के समूह को उन्होंने ‘सत्संग’ नाम दिया। ‘सत्संग’ का मतलब सज्जनों का साथ व सज्जन यानी सत्प्रवृत्ति के लोग. गुरुनानक देवजी के शिष्य हमेशा सत्संग में सत्प्रवृत्ति के बनकर रहे तो अपने जीवन और समाज का कल्याण होगा,

यह भावना शिष्यों के मन में बस गई। इसी कारण सिख धर्म का प्रसार भारत भर में उन्होंने किया। गुरुनानकजी ने अपने सिख धर्म के सभी शिष्यों को ‘सतकरतार’ नमस्कार पद्धति बताई। उन्होंने अपने शिष्यों को सेवाभावी व भ्रातृभावी मार्ग पर लाकर उनके जीवन में क्रांति लाई।

गुरुनानक जी ने अंत में अपना जीवन रावी नदी के तट पर करतारपुर गांव में अपने अनुयायियों व परिवार के सदस्यों के साथ बिताया। आखिर में गुरुनानक जी ने अपने शिष्य भाई लहना जी का नाम अंगद रखकर उनको अपना वारिस नियुक्त किया। गुरु अंगद देवजी सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देवजी के पश्चात दूसरे गुरु हैं।

इस तरह के महान समाज सुधारक व धर्मसंस्थापक गुरुनानक देवजी ने संवत् 1596 क्वार सुदी 23, ई.स. 1539 में करतारपुर में देह त्याग किया। गुरुनानक देवजी समाज में व्याप्त विसंगतियों को रेखांकित कर अन्याय के खिलाफ स्वयं लड़े। उन्होंने अपना जीवन मानवता को ईश्वर-आराधना, मानव प्रेम, एकता व समता का मार्ग दिखाने में लगा दिया। उनका हर जगह पहला संदेश होता था, ‘नानक उत्तम-नीच न कोई’ यानी कोई भी व्यक्ति जन्म से महान या नीच नहीं होता, बल्कि अपने कर्मो से होता है। 

टॅग्स :गुरु नानकKartarpur
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