ईश्वरीय चेतना जुबान ही नहीं, कर्मों से भी झलके
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: September 5, 2025 07:03 IST2025-09-05T07:03:43+5:302025-09-05T07:03:48+5:30
जब सोच ठहर जाती है, नैतिकता गुम हो जाती है और आत्मा सो जाती है, तब पतन तय हो जाता है.

ईश्वरीय चेतना जुबान ही नहीं, कर्मों से भी झलके
माजिद पारेख
इतिहास बार-बार यही सिखाता है कि देशों और सभ्यताओं का बिगाड़ बाहरी दुश्मनों से नहीं, बल्कि अंदरूनी गिरावट से होता है. जब सोच ठहर जाती है, नैतिकता गुम हो जाती है और आत्मा सो जाती है, तब पतन तय हो जाता है.
जब धार्मिक रस्में मूल्यों से आगे निकल जाती हैं, और व्यक्ति पूजा, उसके संदेश के अमल से ज्यादा अहम हो जाती है, तो धर्म का असली मकसद मिटने लगता है. यह हर युग और हर समाज में हुआ है. पैगंबर मुहम्मद (स.) की शिक्षा भी वही थी जो हर नबी लेकर आए - ईश्वर को मालिक मानना, उसके सामने जवाबदेह होना, और ऐसा जीवन जीना जो दूसरों के लिए फायदेमंद हो.
आज के समय में ‘नैतिकता’ एक बार-बार बोला जाने वाला शब्द बन गया है - लेकिन उसको जिया नहीं जाता. यह एक औपचारिक शब्द बन चुका है, जिसे मंचों पर तो बोला जाता है, लेकिन निजी जीवन में नजरअंदाज किया जाता है. हमारे वैश्विक संकट सिर्फ संसाधनों की कमी से नहीं, बल्कि अंदर की दिशा खो जाने से पैदा होते हैं. कुरआन में साफ कहा गया है : “निश्चय ही, ईश्वर किसी कौम की हालत नहीं बदलता, जब तक वे खुद अपने आप को न बदलें.” (कुरआन 13:11)
यह आयत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम पैगंबर मुहम्मद (स.) की याद मनाने के साथ-साथ उनकी शिक्षा पर भी चल रहे हैं? सिर्फ जश्न मनाने से समाज नहीं बदलते - चरित्र बदलने से बदलाव आता है. भारत जैसे विविधता भरे देश को सिर्फ सहनशीलता नहीं, बल्कि समावेशी सोच की जरूरत है. ऐसी सोच जो ‘हम और वे’ की भावना को मिटाए, और साझे मूल्यों को आगे लाए.
किसी इंसान को सोचने की प्रेरणा देना उस इंसान को दिया गया सबसे बड़ा तोहफा होता है. हमें यह समझना होगा कि आज की दुनिया को तेज और ऊंचे भाषणों की नहीं, बल्कि साफ और सच्चे दिलों की जरूरत है.
आज हम एक ऐसे नैतिक मोड़ पर खड़े हैं जहां हमें यह फैसला लेना है - बतौर इंसान, न कि किसी जाति, धर्म या देश के नागरिक के रूप में, हमें दूसरों को नहीं, खुद को जवाबदेह ठहराना होगा. केवल दूसरों में दोष ढूंढ़ने से बेहतर है कि हम अपने अंदर झांकें. और सबसे जरूरी बात - ईश्वरीय चेतना सिर्फ जुबान से नहीं, दिल और कर्मों से झलकनी चाहिए.
असल बदलाव तब आएगा जब हम खुद को बदलेंगे - और वही बदलाव समाज, देश और दुनिया में उजाला फैलाएगा. हम कौन हैं, ये हमने नहीं चुना - यह एक जन्म का संयोग है. हम सब इस धरती पर किरायेदार हैं, और मालिक की तरफ से निकासी का नोटिस (मौत) कभी भी आ सकता है. तो आइए, हम सिर्फ नाम के धार्मिक न बनें, बल्कि मूल्यों के संरक्षक बनें, और इसी में सच्चा इस्लाम और सच्ची इंसानियत बसती है.