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राजेश बादल का ब्लॉगः लोकतांत्रिक अनुष्ठान में राज्यपालों पर सवाल

By राजेश बादल | Updated: November 26, 2019 05:33 IST

भारत के संवैधानिक अतीत के दस्तावेजों की पड़ताल करें तो एक गंभीर बात उभरती है. संविधान सभा ने राज्यों में तो राष्ट्रपति शासन को मंज़ूरी दी थी, लेकिन केंद्र में राष्ट्रपति शासन की स्थिति पूरी तरह नकार दी गई थी.

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भारत के संवैधानिक अतीत के दस्तावेजों की पड़ताल करें तो एक गंभीर बात उभरती है. संविधान सभा ने राज्यों में तो राष्ट्रपति शासन को मंज़ूरी दी थी, लेकिन केंद्र में राष्ट्रपति शासन की स्थिति पूरी तरह नकार दी गई थी. पहले प्रधानमंत्नी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने केंद्र में भी राष्ट्रपति शासन लगाने के समर्थकों को इस तर्क से निरुत्तर कर दिया था कि अगर राष्ट्रपति अधिनायक बन बैठा तो आप क्या करेंगे? देश पर तानाशाही के घुड़सवारों को चढ़ाई करने से कैसे रोका जाएगा? इसके बाद सभी ने इस पर सहमति जताई और राष्ट्रीय स्तर पर प्रेसिडेंट रूल लगाने का प्रस्ताव खारिज हो गया. 

राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगने पर स्पष्ट है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में काम करेगा और ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगा, जिससे भारत के इस सर्वोच्च पद की गरिमा को कोई ठेस पहुंचे. यदि उसने ऐसा किया तो राष्ट्रपति के पास उसके विरुद्ध कार्रवाई करने का अधिकार है. इस व्यवस्था से दशकों तक भारतीय निर्वाचन प्रणाली की सेहत बेहतर रही. यह अलग बात है कि कुछ राज्यपालों के इस तरह के बेतुके और मनमाने निर्णय अदालत में नहीं ठहरे. उनके फैसले न्यायपालिका ने उलट दिए. इसके बाद भी राष्ट्रपति भवन ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. अप्रत्यक्ष रूप से तो यह राष्ट्रपति भवन की अपनी प्रतिष्ठा से भी जुड़ा है. राष्ट्रपति की गरिमा राज्यपाल के कार्यो से भी प्रभावित होती है.

भारतीय लोकतंत्न में लंबे समय तक राज्यपाल के निर्णय को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं देने की परंपरा बनी रही है तो इसके पीछे कारण यह है कि राज्यपालों में अधिकतर ऐसे रहे, जिन्होंने पद की शपथ लेने के बाद दलीय निष्ठा को ताक पर रख दिया. इससे इस पद का मान बढ़ा. मगर कुछ राज्यपालों ने जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से खिलवाड़ शुरू किया तो न्यायपालिका ने संवैधानिक मर्यादाओं को संरक्षण दिया. इससे राज्यपाल की तो किरकिरी हुई, राजनीतिक दलों के लिए न चाहते हुए भी अदालत का दरवाजा खटखटाने का एक रास्ता बन गया.  कितने लोगों को 1989 के एस.आर. बोम्मई मामले की याद है. मुख्यमंत्नी को तत्कालीन राज्यपाल ने बहुमत खो देने का आधार लेते हुए बर्खास्त कर दिया था. हाईकोर्ट ने भी राज्यपाल के फैसले को सच ठहराया. बोम्मई ने तब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और पांच साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई के पक्ष में फैसला सुनाया. यह मामला प्रदेशों में राष्ट्रपति शासन लगाने के आधारों को लेकर एक मानक प्रकरण बन गया. विडंबना है कि राज्य सरकार की अवधि पांच साल ही होती है.  पांच साल बाद अगर यह निर्णय हो कि मुख्यमंत्नी के पास बहुमत था और उन्हें पद से नहीं हटाना चाहिए था तो इसका अर्थ क्या रह जाता है? इस प्रकरण में सबसे जरूरी बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अल्पमत या बहुमत में होने का निर्णय सिर्फ सदन में ही हो सकता है, किसी अन्य मंच पर नहीं.

वैसे कुछ मामलों में गवर्नरों ने अपनी इज्जत भी दांव पर लगाई है. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्नी एन.टी. रामाराव 1983 में अपने ऑपरेशन के लिए अमेरिका गए थे. राज्यपाल ने उन्हें बर्खास्त करके उनके ही एक बागी मंत्नी को मुख्यमंत्नी बना दिया था. इसी साल कश्मीर में राज्यपाल ने मुख्यमंत्नी फारूक अब्दुल्ला को बर्खास्त करके उनके बहनोई को ही मुख्यमंत्नी बना दिया था. यह स्मरण भी दिलचस्प है कि 1998 में उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्नी कल्याण सिंह की सरकार को राज्यपाल ने बर्खास्त कर जगदंबिका पॉल को शपथ दिला दी थी. वे एक दिन ही मुख्यमंत्नी रह पाए क्योंकि अगले दिन ही हाईकोर्ट ने कल्याण सिंह की बर्खास्तगी असंवैधानिक बता दी थी. इसी साल बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को तत्कालीन राज्यपाल ने बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया था. 

दिलचस्प यह कि राष्ट्रपति शासन लगाने को लोकसभा ने तो पास कर दिया, मगर राज्यसभा में अटक गया. राबड़ी देवी फिर मुख्यमंत्नी बन गईं. झारखंड में भी 2005 में ऐसा ही हुआ. गवर्नर ने अल्पमत में होते हुए भी शिबू सोरेन को शपथ दिला दी. वे विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाए और नौ दिन बाद ही इस्तीफा देना पड़ा. ताजा उदाहरण भी कम नहीं हैं. सन 2014 में अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने रद्द कर दिया था. उत्तराखंड में 2016 में मुख्यमंत्नी हरीश रावत के नौ विधायक बागी हो गए. उन्हें बहुमत साबित करने  के लिए 5 दिन का वक्त दिया गया. समय पूरा होता, इससे पहले राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. हरीश रावत ने हाईकोर्ट में चुनौती दी तो कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को असंवैधानिक बताया. जब केंद्र सरकार इसके विरोध में सुप्रीम कोर्ट गई तो फिर उसे मुंह की खानी पड़ी. रावत की सरकार बहाल हो गई. कर्नाटक, गोवा, कश्मीर और मणिपुर में भी राज्यपाल अपने निर्णयों से विवादों के घेरे में आए थे. इस कड़ी में महाराष्ट्र का ताजा घटनाक्रम भी अटपटा है.          प्रवृत्ति को किसी राजनीतिक दल से बांध कर नहीं देखा जा सकता. केंद्र में सत्ताधारी पार्टी ने राज्यपालों का अपने राजनीतिक हितों के लिए उपयोग किया है. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है. निर्वाचन प्रणाली का सार यही है कि अच्छे काम और विचारधारा के आधार पर मतदाता पसंदीदा सरकार  चुन सकें. जब ऐसा नहीं होता तो वोट की ताकत घटती है. आशंका है कि समूची निर्वाचन प्रणाली कहीं महज एक बड़ा इवेंट बन कर न रह जाए.

टॅग्स :महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019
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