कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: लोहिया ने बताया था निराशा से कैसे उबरें
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: March 23, 2020 07:33 AM2020-03-23T07:33:38+5:302020-03-23T07:33:38+5:30
समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया की इस जयंती पर उनके साथ इस विडंबना को भी याद करना जरूरी है कि आज की तारीख में खुद को उनका वारिस कहने वाली पार्टियां और नेता गहन वैचारिक निराशा से गुजरकर भी निराशा के उन कर्तव्यों को निभाने को तैयार नहीं हैं, जो डॉ. लोहिया ने 1962 में 23 जून को नैनीताल में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए बताए थे.
समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया की इस जयंती पर उनके साथ इस विडंबना को भी याद करना जरूरी है कि आज की तारीख में खुद को उनका वारिस कहने वाली पार्टियां और नेता गहन वैचारिक निराशा से गुजरकर भी निराशा के उन कर्तव्यों को निभाने को तैयार नहीं हैं, जो डॉ. लोहिया ने 1962 में 23 जून को नैनीताल में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए बताए थे.
याद रखना चाहिए, वह ऐसा दौर था, जब 19 से 25 फरवरी, 1962 के बीच संपन्न हुए लोकसभा के तीसरे चुनाव में समाजवादियों द्वारा जगाई गई परिवर्तन की तमाम उम्मीदों के विपरीत प्रजा सोशलिस्ट पार्टी 12 और सोशलिस्ट पार्टी 6 सीटें ही जीत पाई थी. स्वाभाविक ही इससे देश के सारे समाजवादी निराश थे. तब डॉ. लोहिया ने न सिर्फ इस निराशा के कारणों की पड़ताल की थी, बल्कि उसके पार जाने के कई जरूरी कर्तव्य भी बताए थे. उन्होंने कहा था कि देश की जनता को अपने हकों के लिए लड़ना और उसकी कीमत चुकाना सिखाए बगैर यह निराशा हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.
उन्होंने समन्वय के दो प्रकार बताकर उसके खतरे गिनाए थे : ‘एक दास का समन्वय और दूसरा स्वामी का समन्वय. स्वामी या ताकतवर देश या ताकतवर लोग समन्वय करते हैं तो परखते हैं कि कौन सी पराई चीज अच्छी है, उसको किस रूप में अपना लेने से अपनी शक्ति बढ़ेगी और तब वे उसे अपनाते हैं.. लेकिन नौकर या दास या गुलाम परखता नहीं है. उसके सामने जो भी नई चीज परायी चीज आती है, अगर वह ताकतवर है तो वह उसको अपना लेता है..यह झख मारकर अपनाना हुआ..अपने देश में पिछले 1500 बरस से जो समन्वय चला आ रहा है, वह ज्यादा इसी ढंग का है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि आदमी अपनी चीजों के लिए, स्वतंत्नता भी जिसका एक अंग है, अपने अस्तित्व के लिए मरने-मिटने के लिए ज्यादा तैयार नहीं रहता. वह झुक जाता है और उसमें स्थिरता के लिए भी बड़ी इच्छा पैदा हो जाती है..कोई भी नया काम करते हुए हमारे लोग घबराते हैंै..जहां जोखिम नहीं उठाया जाता, वहां क्र ांति असंभव-सी हो जाती है. ..इसीलिए अपने देश में क्रांति प्राय: असंभव हो गई है.’