चुनावी मैदान में राजनीतिक मुद्दा बनती भाषाएं, उमेश चतुर्वेदी का ब्लॉग
By उमेश चतुर्वेदी | Published: March 9, 2021 03:04 PM2021-03-09T15:04:11+5:302021-03-09T15:05:58+5:30
संभवत: 1967 के बाद यह पहला मौका है, जब भाषाएं भी चुनावी अभियान का एक हिस्सा बनी हैं.
स्वाधीनता के बाद से लेकर अब तक हुए चुनावों में हर बार तीन मुद्दों को राजनीतिक दल हवा देते रहे हैं.
गांवों का उत्थान, गरीबी का समूल नाश और किसानों की स्थिति सुधारने जैसे वादों और दावों के इर्द-गिर्द अब तक का चुनावी अभियान केंद्रित रहा है. बीच में कुछ तात्कालिक मुद्दे मसलन तानाशाही, स्वायत्तता और नई आर्थिक नीति आदि भी चुनावी अभियान के हिस्से रहे. लेकिन संभवत: 1967 के बाद यह पहला मौका है, जब भाषाएं भी चुनावी अभियान का एक हिस्सा बनी हैं.
इन दिनों पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया जारी है. संयोग से पांचों ही राज्यों में स्थानीय संस्कृति और उपराष्ट्रीयताओं पर जोर देने की परिपाटी रही है. पश्चिम बंगाल तो मानता ही है कि भारत की ओर से आधुनिकता की तरफ खुलने वाली खिड़की उसकी ही थी. रेनेसां यानी पुनर्जागरण जिसे कहते हैं, उसके बारे में मान्यता ही है कि वह भद्रलोक में ही आया.
बेशक यही भद्रलोक इन दिनों राजनीतिक रक्त से रंजित है. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल के समाज को अपनी बांग्ला भाषा, अपनी संस्कृति और अपने पुरखों पर नाज है. पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज होने की तैयारी में जुटी भारतीय जनता पार्टी इस संस्कृति प्रेम को भी अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश में है.
उसके चुनाव घोषणा पत्र में बांग्ला भाषा को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने का वादा इसी कोशिश का नतीजा है. राज्य की सत्ता पर काबिज ममता बनर्जी अब तक जो मां, माटी और मानुष की बात करती रही हैं, उसकी नाभिनाल भी बांग्ला भाषा से जुड़ती है. इस बीच यहां एक और भाषा मुद्दा बन रही है.
राज्य की करीब 80 सीटों पर जीत-हार का फैसला करने की स्थिति में हिंदीभाषियों के होने के चलते अब मां, माटी और मानुष के नाम पर ठेठ स्थानीय संस्कृति और भाषा की बात करने वाली ममता बनर्जी हिंदी की भी बात कर रही हैं. हिंदी के विकास के लिए वे पश्चिम बंगाल हिंदी अकादमी का गठन तो कर ही चुकी हैं, उनकी पार्टी में भी हिंदीभाषी प्रकोष्ठ काम कर रहा है.
स्पष्ट है कि पश्चिम बंगाल में शायद पहला चुनाव है, जहां हिंदी भी सकारात्मक मुद्दा बनकर उभरी है. यह संयोग ही नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन दिनों तमिल भाषा नहीं सीख पाने का ज्यादा मलाल है. तमिलनाडु में भी इन दिनों चुनाव हो रहा है. कटआउट और पर्सनैलिटी कल्ट यानी व्यक्ति पूजा केंद्रित तमिल राजनीति तो भाषा के मामले में 1937 से ही संवेदनशील रही है.
इसी साल हुए पहले चुनावों में मद्रास राज्य के तत्कालीन प्रीमियर (मुख्यमंत्री) सी. राजगोपालाचारी ने हिंदी को लागू कर दिया था, जिसके खिलाफ सीए अन्नादुरै ने जो आंदोलन छेड़ा, वह तो 1967 में उत्तर भारत में डॉक्टर राममनोहर लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के खिलाफ एक तरह से हिंसक ही हो गया था. शायद यही वजह है कि इस राज्य में 1967 के चुनावों में भाषा भी अहम मुद्दा थी.
तमिलनाडु को इस बात का गर्व है कि उसकी तमिल भारत की सबसे पुरानी भाषा है. वह शास्त्रीय भाषा भी है. तमिल संस्कृति और भाषा को लेकर राज्य की बड़ी जनसंख्या संजीदा रही है. शायद यही वजह है कि ऐन चुनावों के पहले प्रधानमंत्री ने तमिल न सीखने का जिक्र करके तमिल जनता के दिलों के कोमल तंतुओं को छेड़ने की कोशिश की है.
पुड्डुचेरी भले ही अलग राज्य है. लेकिन वहां की अधिसंख्य जनसंख्या तमिलभाषी है. पांडिचेरी चूंकि फ्रांस का उपनिवेश रहा, फ्रांसीसी संस्कृति भी अपनी भाषा को लेकर संजीदा रही है. इसका असर पुड्डुचेरी पर भी है. तमिल की बात यहां के लोगों के भी दिलों को छूती है. भारत में जिन राज्यों में अपनी उपराष्ट्रीयता वाली सोच प्रभावी है, वहां अपनी भाषाओं और परंपराओं को लेकर विशेष भाव है.
केरल भी इसी तरह का राज्य है. जहां विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. मलयालम भाषा को लेकर यहां के निवासी बेहद संजीदा रहते हैं. हालांकि अभी तक किसी भी गठबंधन या दल ने यहां की भाषा को लेकर कोई बयान नहीं दिया है. लेकिन यह भी सच है कि यहां पूरी कोशिश मलयाली संस्कृति के जरिए ही मतदाताओं को रिझाने की कोशिश होती है. पूर्वोत्तर के असम में चूंकि भाषा ऐसा मसला है, जिसे सीधे छूना किसी भी राजनीतिक दल के लिए आसान नहीं है.
यहां एक तरफ बंगाली समुदाय का वर्चस्व है, जो अपनी बांग्ला संस्कृति और भाषा के प्रति बेहद आग्रही होता है, तो दूसरी तरफ असमिया मूल की भारी जनसंख्या है. इसे अपनी भाषा और संस्कृति से कितना प्यार है, इससे समझा जा सकता है कि यहां के बच्चे को तब तक संस्कारित नहीं माना जाता, जब तक वह असमिया के साहित्य सम्मेलनों में हिस्सा न लेता हो.
इसलिए यहां अल्पसंख्यक राजनीतिक आधार वाले दलों को छोड़ दें तो किसी भी राजनीतिक दल के लिए भाषा को लेकर ऐसा रुख अपनाना चुनौतीपूर्ण है, जो पूरे प्रदेश के मतदादातों के दिलों को समान रूप से साध सके. वैसे असमिया और बांग्ला संस्कृति में काफी समानताएं हैं. इसलिए यहां के राजनीतिक दल असमिया संस्कृति के नाम पर भाषाओं के मुद्दों को थामने की कोशिश करते हैं.