अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग: राजनीति में शालीनता और मर्यादा की मिसाल हैं गुलाम नबी आजाद
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: February 10, 2021 01:31 PM2021-02-10T13:31:41+5:302021-02-10T13:31:41+5:30
गुलाम नबी आजाद का जन्म 7 मार्च 1949 को जम्मू-कश्मीर के डोडा में हुआ। बेहद विपरीत हालात में भी वे जिस तरह अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे, वो आसान बात नहीं है।
भारतीय संसद का उच्च सदन सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जब तनातनी और राजनीति का अखाड़ा बना हो, वहीं 9 फरवरी 2021 को नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद की विदाई के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो भावुक भाषण दिया है, उसमें भारतीय राजनीति में सत्ता और विपक्ष के बीच के रिश्तों को लेकर एक संकेत भी है और संदेश भी.
इसके निहितार्थ भी निकाले जा रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा है वह गुलाम नबी आजाद की बेहतरीन संवाद क्षमता, व्यवहार, शालीनता और मर्यादा की राजनीति को लेकर है. वे भारत की संसद पर एक अनूठी छाप छोड़ने वाले नेताओं में हैं और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी अलग पहचान है.
गुलाम नबी आजाद- सबके सम्मान के बने पात्र
करीब पांच दशकों के अपने सार्वजनिक जीवन में आजाद बहुत बड़े दायित्वों से बंधे रहे. लेकिन सदन हो या सदन के बाहर उन्होंने कड़ी से कड़ी बात भी हमेशा मर्यादा की सीमा में और शालीनता से कही, जिस कारण सबके सम्मान के पात्र बने.
संसदीय राजनीति में वे नेहरू की दिखाई राह के पथिक थे और लोकतांत्रिक मूल्यों को हमेशा आगे रखा. सत्ता में रहे तो विपक्ष को बराबर तरजीह दी और विपक्ष में रहने के दौरान भी सत्ता पक्ष को दुश्मन की निगाह से कभी नहीं देखा.
यहां तक कि सदन के कामकाज के तरीकों को लेकर सभापति राज्यसभा एम. वेंकैया नायडू से कई बार उन्होंने असहमति जताई. फिर भी कभी उनके रिश्तों में कोई खटास नहीं आई.
7 मार्च 1949 को जम्मू-कश्मीर के डोडा में जन्मे गुलाम नबी आजाद ने अपने राज्य से निकल कर जिस विपरीत हालात में जगह बनाई, वह कोई सरल बात नहीं. 2015 के साल के लिए वे संसद के सबसे बड़े उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार से सम्मानित हुए और 2018 में उपराष्ट्रपति एम.वेंकैया नायडू ने दिग्गज शरद पवार और प्रो. मुरली मनोहर जोशी के साथ उत्कृष्ट योगदान के लिए लोकमत संसदीय पुरस्कार से सम्मानित किया.
गुलाम नबी आजाद के संसदीय ज्ञान से हुए जब परिचित
2018 में कैलिफोर्निया असेंबली का एक शिष्टमंडल भारत आया था जिसे सभापति राज्यसभा की गैरमौजूदगी के नाते नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद से मिलवाया गया. संसद भवन में इस मुलाकात में मैं भी शामिल था.
आजाद ने भारत की संसदीय व्यवस्था और राज्यों में विधायी कामकाज से लेकर सरकार और विपक्ष जैसे पक्षों पर इतने विस्तार से उनको जानकारी दी कि उनके संसदीय ज्ञान से सभी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे.
पूरी बैठक में यह आभास पाना कठिन था कि उनकी बातचीत विपक्ष के नेता से हो रही है. बेशक संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष का अपना एक गौरवशाली स्थान है. जैसे देश चलाने के लिए मजबूत सरकार जरूरी है, वैसे सरकार के क्रियाकलापों पर नजर रखने के लिए मजबूत विपक्ष की भी जरूरत होती है.
गुलाम नबी आजाद की ताकत संसदीय ज्ञान, सरलता और सहजता के साथ बेहतरीन संगठनकर्ता होना भी है. चुनौती भरे दायित्वों से वे कभी पीछे नहीं हटे. यहां तक कि जब उनको दिल्ली से हटा कर जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस का जिम्मा सौंपा गया तो भी नहीं.
हालांकि वे लगातार केंद्रीय राजनीति में थे और ऐसा माना गया कि यहां से उनकी अब विदाई हो रही है. लेकिन आजाद ने राजनीतिक तौर पर बंजर रहे राज्य में तीन दशक के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी कराई और मुख्यमंत्री भी बने.
जम्मू-कश्मीर में आया विकास का नया दौर
आतंकवाद से ग्रस्त जम्मू-कश्मीर में उनके ही नेतृत्व में विकास का एक नया दौर शुरू हुआ. तमाम चुनौतियों से वे जूङो और मनमोहन सिंह ही नहीं, अटलजी तक का सहयोग हासिल किया.
13 मई 1952 को राज्यसभा की पहली बैठक से 68 सालों के बीच राज्यसभा में सरकारों के पास केवल 29 साल बहुमत रहा जबकि 39 सालों तक वे अल्पमत में रहीं. लेकिन विधायी कामकाज में दिक्कतें नहीं आईं.
मौजूदा सरकार ने भी राज्यसभा में पर्याप्त संख्या बल न होने के बावजूद जीएसटी, तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन के साथ नागरिकता संशोधन जैसे विधेयकों को पारित कराया.
गुलाम नबी आजाद जैसे सुलझे नेता विपक्ष की विदाई के बाद क्या तस्वीर बनती है, यह तो समय ही बताएगा. लेकिन इस संसदीय पारी से विदाई के बाद भी आजाद अपनी योग्यता व क्षमता के नाते मुख्यधारा में बने रहेंगे.