...तो क्या AAP के विश्वास की तरह बीजेपी-कांग्रेस प्रवक्ता भी आलाकमान के लिए बोलते हैं 'झूठ'?
By राहुल मिश्रा | Published: May 7, 2018 01:21 PM2018-05-07T13:21:26+5:302018-05-07T13:35:19+5:30
वर्तमान की बात करें तो डॉ. कुमार विश्वास संभवतः पार्टी के भीतर अपनी राजनैतिक भूमिका के अंत तक पहुंच गए है। उनकी और पार्टी मुखिया अरविंद केजरीवाल के बीच की दरार अब साफतौर पर नजर आने लगी है।
अपनी कविताओं के जरिए देश और दुनिया भर के तमाम साहित्य प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले कुमार विश्वास का वास्ता राजनीति से दूर-दूर तक नहीं था लेकिन अन्ना आन्दोलन के बाद उपजी आम आदमी पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाने के बाद कुमार ने राजनीति के क्षेत्र में लंबी छलांग लगाई। एक विश्वविद्यालय में छात्रों को हिंदी के गुर सिखाने वाले प्रोफ़ेसर रहे कुमार विश्वास ने राजनेता के नए अवतार में राजनीति और कविता का बेहतरीन तालमेल दुनिया को दिखाया लेकिन अब वर्तमान की बात करें तो डॉ. कुमार विश्वास संभवतः पार्टी के भीतर अपनी राजनैतिक भूमिका के अंत तक पहुंच गए है। उनकी और पार्टी मुखिया अरविंद केजरीवाल के बीच की दरार अब साफतौर पर नजर आने लगी है।
यह दरार राज्यसभा की उन तीन सीटों के मुद्दे की उपज है, जिनकी वजह से पार्टी के भीतर चल रहा घमासान उजागर हो गया था। आलम यह है कि पार्टी और शीर्ष नेताओं के लिए कुमार अब वो 'कुमार विश्वास' नहीं रहे, अब वो लगभग 'अछूत' हो गए हैं। यहां तक कि पार्टी नेताओं के द्वारा ही उन्हें 'RSS एजेंट' तक बताया जाने लगा है।
इसी बीच जब बीती 3 मई को दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल को कुमार विश्वास ने आदतन झूठा आदमी करार दिया तो सियासी गलियारों में घमासान मच गया। कुमार ने कहा कि केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली के ऊपर दिल्ली और जिला क्रिकेट एसोसिएशन में भ्रष्टाचार के आरोप उन्होंने पार्टी के कार्यकर्ता द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर लगाए थे या तो केजरीवाल ने तब झूठ बोला था या अभी बोल रहे हैं। हालांकि हाल ही में केजरीवाल ने अरुण जेटली से पूरे मामले पर मांफी मांगते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया, लेकिन कुमार विश्वास भी अतिआत्मविश्वास में कह गए कि वो जेटली से माफी नहीं मांगेंगे। अब जब कोर्ट में उनसे इस मामले पर जबाब तलब किया गया तो उन्होंने भी अरविंद केजरीवाल की तरह यू टर्न लेते हुए अपना पक्ष रखते हुए कहा कि एक आम पार्टी कार्यकर्ता की हैसियत से उन्होंने अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता अरविंद केजरीवाल की कही गई बातों को केवल दुहराने का काम किया है।
इस सब के बीच अगर पूरे मामले पर गौर किया जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि कुमार विश्वास ने एक जिम्मेदार पार्टी प्रवक्ता होने के नाते अपनी उस जिम्मेदारी को निष्पक्ष और ईमानदारी से नहीं निभाया। साधारण सी बात यह है कि क्या किसी भी राजनैतिक पार्टी के प्रवक्ता जो टीवी पर बहस के दौरान ऐसे नजर आते हैं कि जैसे उन्होंने कभी झूठ बोला ही नहीं और जिनकी मुद्रा एकदम ‘सच’ बोलने वाली नजर आती है क्या वो सच ही बोलते हैं? कुमार विश्वास के हालिया बयान इस बात की सत्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।
हम और आप अमूमन देखते हैं कि तमाम दावों के साथ पार्टी प्रवक्ता विपक्षी पार्टियों पर आरोप लगाते हैं। लेकिन बाद में में आरोप लगाने वाली उसी पार्टी के एक ज़िम्मेदार प्रवक्ता कुमार विश्वास कहते हैं कि हमारा तो मुखिया ही बेवफ़ा निकला। अब क्या या उस जनता और कार्यकर्ताओं से धोखा नहीं हुआ है जो राजनीति में 'आप' को एक मजबूत विकल्प मानते हुए हमेशा उनके साथ खड़े रहे, पार्टी ने जिस ब ही विपक्षी नेता को बेईमान कहा, कार्यकर्ताओं ने उसे बेईमान माना?
अब आप इससे इस बात का अंदाजा लगा सकते कि यह समस्या कितनी गंभीर है कि पार्टी के प्रवक्ता जो कुछ भी बोलते हैं वह सबकुछ अपने नेता के कहने पर बोलते हैं फिर चाहे वो सही हो, गलत हो, सच हो या झूठ? मैं अपनी बात करूं तो अरविंद केजरीवाल और कुमार विश्वास दोनों की ही माफ़ी को माफ़ी नहीं मान सकता क्योंकि झूठ बोलना मजबूरी हो सकता है लेकिन राजनीतिक हित साधने के लिए झूठ का सहारा लेना जनता के साथ छलावा है।
कुमार विश्वास के बयानों से क्या यहां सीधा और स्पष्ट नहीं हो जाता कि टीवी डिबेट में पार्टियों के ये प्रवक्ता 'सच्चाई के दूत' नहीं बल्कि राजनैतिक एजेंडे की कठपुतलियों की तरह हैं?