Maharashtra politics: राजनीतिक अस्थिरता से गुजरता स्थिर महाराष्ट्र, अब आगे क्या होगा?
By Amitabh Shrivastava | Updated: August 19, 2023 15:10 IST2023-08-19T15:09:17+5:302023-08-19T15:10:47+5:30
Maharashtra politics: राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद महाराष्ट्र अपनी जगह स्थिर नजर आता है. अतीत पर नजर दौड़ाई जाए तो राज्य में राजनीतिक उठापटक सत्तर के दशक में ही आरंभ हो गई थी.

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Maharashtra politics: आम तौर पर महाराष्ट्र की राजनीति दो भागों में चलती आई है. एक तरफ कांग्रेसी गठबंधन तो दूसरी ओर भगवा गठबंधन अपनी ताकत आजमाता रहा है. मगर वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद से राज्य की राजनीति अच्छे-अच्छों की समझ से बाहर हो चली है.
यही वजह है कि लोग अक्सर एक सवाल पूछते मिलते हैं कि महाराष्ट्र में अब आगे क्या होगा? जिसका जवाब उन्हें कभी तीर तो कभी तुक्का जैसा मिलता है. हालांकि राज्य की राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद महाराष्ट्र अपनी जगह स्थिर नजर आता है. अतीत पर नजर दौड़ाई जाए तो राज्य में राजनीतिक उठापटक सत्तर के दशक में ही आरंभ हो गई थी.
जब शरद पवार के रूप में एक नया नेतृत्व उभरा था. तरह-तरह के दांव-पेंच में माहिर पवार ने अनेक मौकों पर कांग्रेस को चुनौती दी और बाद में उसी से फिर जा मिले. पुराने मौकों में कांग्रेस के टूटे दल और कांग्रेस की सरकार में उलटफेर होता था. मगर नब्बे के दशक तक आते-आते अनेक तरह के समाजवादी और वामपंथी दलों का कांग्रेस के साथ जुड़ना भी आरंभ हुआ.
यहीं से कांग्रेस का अपने दम या अलग हुए लोगों के साथ सरकार बनाने का क्रम टूटना शुरू हुआ. वर्ष 1995 में तो कांग्रेस को सत्ता से ही पीछे हटना पड़ा, जब पहली शिवसेना-भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) गठबंधन की भगवा सरकार ने राज्य की बागडोर संभाली. यह पहली गैर कांग्रेस सरकार भी ठीक तरह से चली, लेकिन वर्ष 1999 के चुनाव में सत्ता से बाहर हो गई.
हालांकि इसी समय कांग्रेस भी दो-फाड़ हुई और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के रूप में नई पार्टी सामने आई. फिर भी सरकार मिलकर बनी और अगले दो चुनाव 2004 और 2009 के बाद तक सत्ता में बनी रही. इसके बाद वर्ष 2014 में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनी, जो अच्छी तरह से चली. इसमें भी भाजपा का दबदबा था, मगर शिवसेना का साथ बना रहा.
वर्ष 2019 के चुनाव के बाद भाजपा और शिवसेना के बीच तालमेल टूटा, तो राज्य का हाल ही बदल गया. पहले कुछ दिन की भाजपा की सरकार और फिर ढाई साल कांग्रेस-राकांपा-शिवसेना की मिली-जुली सरकार अस्तित्व में आई. एक साल पहले टूटी शिवसेना के साथ भाजपा की दोबारा सरकार बनी, जिसमें कुछ माह पहले राकांपा भी जा मिली.
बीते करीब चार सालों में महाराष्ट्र की राजनीति में जो हुआ, वो कभी देखा नहीं गया. विपरीत ध्रुवों पर बैठे नेताओं का मिलन सभी के लिए आश्चर्यजनक रहा. ऐसे विधायक जिन्होंने दल विशेष के खिलाफ चुनाव लड़ा था, वे भी अपने विरोधियों से गलबहियां करते दिखाई दिए. अनेक नेता, जो सपने में भी अपने विरोधियों से मिलना नहीं चाहते थे, वे सत्ता सुख में उनके साथ मंत्री बनकर एक कतार में नजर आए.
हालांकि इस दौर को राज्य ने कोरोना संकट में स्वीकार कर लिया. मगर उसके बीतते ही राज्य की राजनीति ने फिर करवट ली और एक नई तरह की सरकार का गठन सामने आया, जिसके भीतर वैचारिक विरोधाभास और एक-दूसरे की जमकर खिलाफत भी है. इसके बावजूद सरकार अस्तित्व में है. उसी सरकार के साथ राकांपा का जुड़ना अपने आप में एक पहेली है.
यद्यपि राकांपा के मुखिया शरद पवार अपनी पार्टी के विधायकों का भाजपा-शिवसेना शिंदे गुट की सरकार से मिलना पचा नहीं पा रहे हैं और विरोध में सभाएं करते दिखाई दे रहे हैं. दूसरी तरफ भाजपा के नेता खुलेआम दावा कर रहे हैं कि पवार देर-सबेर उनके साथ ही दिखाई देंगे, क्योंकि वह भाजपा के नेतृत्व में ही देश के विकास की बात को स्वीकार करते हैं.
राजनीति के नए खिचड़ी दौर में हर नेता की अपनी जुबान है. वह अपने ही अंदाज में राजनीति करना चाहता है. किंतु राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल साफ दिखाई देता है. कुछ ही माह में देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के लिए तैयार है. मगर महाराष्ट्र के राजनीतिक हालात कुछ ऐसे हैं कि दल अपने विरोधियों की बजाय आपस में ही लड़ने के लिए तैयार हो रहे हैं.
टूटी राकांपा, टूटी शिवसेना का मुकाबला खुद से है, तो शिवसेना का पुराना भाग महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी अपनी तैयारी में जुट रही है. इतने सारे टूटे-फूटे दलों के बीच कांग्रेस, जितनी भी है, मगर एकजुट है. इसके बावजूद उसके लिए पूरे राज्य में अकेले चुनाव लड़ पाना संभव नहीं है. वह गठबंधन के साथ ही चलेगी. भाजपा के सामने समस्या किस-किस को संभालने की हो चली है.
ये हालात लोकसभा चुनाव के पहले हैं तो विधानसभा चुनाव के समय स्थितियां क्या होंगी, इसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है. यही महाराष्ट्र की गंभीर होती समस्या है, जो राज्य के अतीत से एकदम विपरीत है. आम तौर पर देश के राजनीतिक परिदृश्य को देखा जाए तो जहां पर भी भाजपा ने मौजूदा सरकार गिराकर अपनी सरकार बनाई है, वहां स्थिरता भी लाई है.
चाहे पिछली सरकार में कर्नाटक हो या फिर मध्य प्रदेश, इन राज्यों में सत्ता परिवर्तन के बाद भाजपा ने निश्चिंत होकर काम किया है. यह बात भी महाराष्ट्र में पिछले चार साल से नहीं दिख रही है. यूं देखा जाए तो बीते कुछ दिनों में राज्य की हर नई सरकार पिछली सरकार की आलोचना कर महाराष्ट्र की स्थिति को बेहतर बताने की कोशिश कर रही है.
किंतु इसे वास्तविकता में महसूस करना आसान नहीं है. इसका अंदाज मंत्रालय में लोगों की समस्याओं के हल और निवेश की स्थिति से लगाया जा सकता है. बीते कुछ समय से दोनों ही मोर्चों पर सकारात्मक खबरें सामने नहीं आ रही हैं, हालांकि विकास-निवेश की यथास्थिति भी अपनी जगह है और उसमें खासी गिरावट भी नहीं है. कुछ हद तक यह राज्य की स्वाभाविक स्थिर प्रकृति का परिणाम भी है.
लेकिन राज्य के दूरगामी भविष्य के लिए राजनीतिक स्थिरता की आवश्यकता है, जो राजनेताओं की महत्वाकांक्षा से नहीं मिल सकती है. इसके लिए सोच और चिंतन में गंभीरता-परिपक्वता लानी होगी. विचारधारा का दिवालियापन राजनीति को हल्का कर रहा है. इसलिए अब तात्कालिक सफलता से अधिक भविष्य की परेशानियों पर ध्यान देना आवश्यक है. वर्ना राजनीति की खुशियों को गम में बदलने में भी देर नहीं लगती है.