ब्लॉग: राजनेताओं की फिसलती जबान और अमर्यादित व्यवहार, क्या रूकेगा ये सिलसिला?

By राजेश बादल | Published: June 27, 2023 10:42 AM2023-06-27T10:42:16+5:302023-06-27T10:42:16+5:30

संसद और विधानसभाओं में गंभीर व प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिशत घटता गया है. जो लोग चुनाव मैदान में उतरे, उनके मन में राजनीति के प्रति सेवा का नहीं, बल्कि कारोबारी नजरिया अधिक था.

Slipping tongue and indecent behavior of politicians, will this cycle stop | ब्लॉग: राजनेताओं की फिसलती जबान और अमर्यादित व्यवहार, क्या रूकेगा ये सिलसिला?

ब्लॉग: राजनेताओं की फिसलती जबान और अमर्यादित व्यवहार, क्या रूकेगा ये सिलसिला?

तीन प्रदेशों के विधानसभा चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहे हैं, राजनेताओं की भाषा अभद्र होती जा रही है. गांव का आम कार्यकर्ता यदि अमर्यादित भाषा बोले तो एक बार माफ किया जा सकता है, लेकिन जब यह शब्दावली मंत्री, विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री तक बोलने लग जाएं तो क्षोभ और निराशा स्वाभाविक है.

राजनीति में जब से बौद्धिक वर्ग हाशिए पर गया है और धन बल तथा बाहुबल प्रभावी हुआ है, तब से साफ-सुथरी सियासत देखने को नहीं मिल रही है. यह स्थिति निश्चित रूप से सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों पर सवाल खड़े करती है.

बीते दिनों मध्य प्रदेश में विंध्य इलाके में एक ऐसा ही अप्रिय और स्तरहीन आरोप - प्रत्यारोप देखने को मिला. एक विधायक ने अपनी ही पार्टी के सांसद को सार्वजनिक तौर पर राक्षस कहा. उन्होंने कहा कि सांसद राक्षस हैं और उन्हें वे अपने निर्वाचन क्षेत्र में घुसने नहीं देंगे. विधायक महोदय यहीं नहीं रुके. उन्होंने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि वे ऐसे ही राक्षसों का विनाश करने के लिए राजनीति में आए हैं. 

विधायक का आरोप था कि क्षेत्रीय सांसद विकास के हर काम को रोकते हैं. सांसद महाशय ने भी उसी भाषा में उत्तर दिया. उन्होंने विधायक की तुलना कुत्ते से करते हुए कहा कि ऐसे लोग बेमतलब भौंकते ही रहते हैं. सांसद ने विधायक को यह उत्तर विधायक के क्षेत्र में पहुंचकर ही दिया. इस अपमानजनक संवाद पर पार्टी ने कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की.

इस कड़ी में एक मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के बीच चल रहे वाक युद्ध ने भी अपनी हद पार कर दी. मुख्यमंत्री ने विपक्ष और उसकी एकता के प्रयासों की तुलना सांप, बंदर, बिच्छू और मेंढक से कर डाली. पूर्व मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र की एक सभा में उन्होंने कहा कि वे गड्ढा खोदकर उसमें पूर्व मुख्यमंत्री को गाड़कर उनका राजनीतिक अंत कर देंगे. पूर्व मुख्यमंत्री के लिए उन्होंने करप्टनाथ जैसा शब्द प्रयोग किया तो पूर्व मुख्यमंत्री भी पीछे नहीं रहे. उन्होंने कहा कि खरीद फरोख्त की सत्ता ने मुख्यमंत्री को मदांध कर दिया है. विनाशकाले विपरीत बुद्धि. 

वैसे इन मुख्यमंत्री की जबान संवेदनशील मामलों में अक्सर फिसल जाती है. अधिकारियों और कर्मचारियों को लगभग अपमानित करने और धमकाने वाले अंदाज में अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल करना उनका पुराना शगल है. एक कलेक्टर को उन्होंने कहा, ऐ पिट्ठू कलेक्टर सुन ले ! हमारे भी दिन आएंगे. तब तेरा क्या होगा. बड़े-बड़े अफसरों को सार्वजनिक मंच से अपमानित करना और बिना जांच के उन्हें निलंबित करने की घोषणा करना उनकी आदत है. सुनकर अजीब लगता है कि लोकतंत्र का एक स्तंभ दूसरे स्तंभ के लिए सम्मानजनक भाषा का प्रयोग न करे.

अपनी रौ में बहकर राजनेता मतदाताओं को भी अपमानित करने से नहीं चूकते. हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री राजस्थान गए. वहां अपने पढ़े-लिखे होने की दुहाई देते हुए उन्होंने एक सभा में लोगों से अपील की कि वे अनपढ़ उम्मीदवारों को वोट नहीं दें. मुख्यमंत्री भूल गए कि भारतीय संविधान देश के हर नागरिक के लिए है. वह अनपढ़ और पढ़े-लिखे प्रत्येक व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार भी देता है. किन्हीं सामाजिक हालात के चलते यदि कोई मतदाता शिक्षा प्राप्त करने से वंचित हो जाता है तो सार्वजनिक रूप से उसके खिलाफ ऐसी कोई बात नहीं की जा सकती, जिससे उसके सामाजिक सम्मान को चोट पहुंचती हो. 

खास तौर पर मुख्यमंत्री के पद पर बैठा राजनेता, जो संविधान की शपथ लेकर अपनी जिम्मेदारी निभाता हो. यदि वह कहे कि अनपढ़ को वोट मत देना तो निश्चित रूप से यह संविधान की भावना का अनादर माना जाएगा. अपने साक्षरपन पर गर्व करते हुए अनपढ़ों के प्रति हिकारत का भाव अहंकार ही माना जाएगा. एक जनसेवक के लिए यह घमंड ठीक नहीं है.

दरअसल नब्बे के दशक से भारतीय राजनीति में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ. क्षेत्रीय और प्रादेशिक पार्टियों का उदय हुआ. सत्ता के लिए गठबंधन बनने लगे. इस कारण मतदाता भी बिखरे और अलग-अलग पार्टियों के पाले में चले गए. यहीं से राजनीतिक दलों के भीतर अपने वोट बैंक को लेकर असुरक्षा का भाव पनपा. यही वह समय था, जब सियासत में मुहावरा चल पड़ा कि जीतने वाले को ही टिकट दिया जाएगा. इस मुहावरे ने ही बाहुबल और धन बल को प्रोत्साहित किया. 

नतीजा यह कि संसद और विधानसभाओं में गंभीर व प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिशत घटता गया. जो लोग चुनाव मैदान में उतरे, उनके मन में राजनीति के प्रति सेवा का नहीं, बल्कि कारोबारी नजरिया अधिक था. सत्ता कमाई का जरिया बन चुकी थी. चुनावी मुकाबले बारीक होने लगे. गलाकाट स्पर्धा ने ही बदजुबानी को बढ़ावा दिया और मर्यादा तार-तार होकर बिखरने लगी. विडंबना यह कि गंदी तथा अश्लील भाषा सुन और देखकर नई पीढ़ी अपने मन में राजनीति के इसी रूप को असली मान बैठी और इसके अनुरूप आचरण करने लगी. इस पर अंकुश यकीनन बेहद कठिन है. 

नब्बे के दशक में ही महिलाओं के प्रति भी घटिया और बेहूदी टिप्पणियों की शुरुआत हुई. जबलपुर की एक दलित समाज की राज्यसभा सदस्य ने हाल ही में जिला कलेक्टर की निरंतर उपेक्षा से आहत होकर उनका पुतला जलाया. हम कैसे लोकतंत्र की रचना कर रहे हैं?

Web Title: Slipping tongue and indecent behavior of politicians, will this cycle stop

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