कृषि अर्थशास्त्री और तीनों कृषि कानूनों के समर्थक प्रोफेसर अशोक गुलाटी ने हाल ही में संस्मरण सुनाया है कि किसी जमाने में वे महेंद्र सिंह टिकैत (राकेश टिकैत के पिता) के घर गए थे और उनके यहां बना हलवा खाया था. वे अपने आप से ही यह पूछ रहे हैं कि किसान तो टिकैत के समय से ही इस तरह के कानून लाने के पक्ष में थे, लेकिन अब वे बदल कैसे गए?
वे इस प्रश्न का उत्तर भी देते हैं कि आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया लंबी और सलाह-मशविरे के आधार पर चलने वाली होनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं होगा तो जिन्हें इस परिवर्तन से प्रभावित होना है, वे उसे मानने के लिए तैयार नहीं होंगे.
प्रोफेसर गुलाटी के इस अवलोकन से हमें एक सुराग मिलता है कि किसान प्रधानमंत्री को अपने हितों के पक्ष में अपनी नुमाइंदगी करते हुए अर्थव्यवस्था में नीतिगत हस्तक्षेप करते हुए देखना चाहते हैं. उन्हें लग रहा है कि प्रधानमंत्री ने तीन कृषि कानूनों के रूप में जो हस्तक्षेप किया, वह किसानों की बजाय अर्थव्यवस्था की उन शक्तियों के पक्ष में जाता है जिन्हें कॉरपोरेट कहा जाता है और जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बंदोबस्त द्वारा थमाए गए नीतिगत पैकेज से संबंधित हैं.
जैसे ही यह छवि बनती है, वैसे ही प्रधानमंत्री की कही गई हर बात का मतलब आंदोलनकारियों द्वारा नकारात्मक निकाला जाने लगता है. मसलन, तीन अध्यादेश जारी करने के कुछ दिन बाद ही उन्होंने इस आशय की बात कही थी कि एक युवक आएगा जो किसानों को खेती करने के बारे में बताएगा.
किसानों को खेती करने के नये बंदोबस्त के बारे में किसी विशेषज्ञ से जानकारी लेने में कोई ऐतराज नहीं रहा है. साठ और सत्तर के दशक में भी उन्होंने हरित क्रांति के नए पैकेज को विशेषज्ञों की हिदायतों के अनुसार ही सीखा था.
प्रधानमंत्री के वक्तव्य को अगर एक रूपक की तरह पढ़ें तो साफ हो जाता है कि अगर उन्होंने किसानों के साथ एक आत्मीय वातार्लाप के जरिये और तीनों अध्यादेशों को लाने से पहले यह बात कही होती तो इसका सकारात्मक अर्थ ग्रहण किया जाता.
लेकिन, सरकार ने पहले एक बड़ा फैसला किया, उसके जरिये किसानों का भविष्य तय कर दिया, और फिर किसानों को समझाने की मुहिम चलानी शुरू कर दी. सरकार का यह भी दावा है कि फैसला लेने से पहले उसने सलाह-मशविरे का दौर चलाया था. परामर्श की इस प्रक्रिया की संरचना क्या थी? इसकी एक जानकारी बुजुर्ग किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल द्वारा दिए गए नीति आयोग की 2017 में हुई उस बैठक के ब्यौरे से मिलती है जिसमें राजेवाल और एक-दो किसान नेताओं को भी बुलाया गया था.
बैठक में शामिल बाकी लोग या तो सरकारी विशेषज्ञ थे या कृषि के क्षेत्र में पूंजी लगाने को उत्सुक कॉरपोरेट जगत के प्रतिनिधि. बैठक चलती रही, लेकिन किसान नेता श्रोता बने बैठे रहे. उन्हें बोलने का मौका तब मिला जब उन्होंने बैठक का बायकाट करने की धमकी दी. बैठक में कॉरपोरेट प्रतिनिधियों ने साफ कहा कि वे पूंजी लगाने के लिए तैयार हैं लेकिन सरकार को पचास-पचास हजार एकड़ के क्लस्टर बनाने की गारंटी करनी होगी, और यह भी सुनिश्चित करना होगा कि अपनी ही जमीन पर खेतिहर श्रम करने वाले किसान इन जमीन पर कॉरपोरेट योजना के मुताबिक होने वाली खेती पर कोई आपत्ति नहीं करेंगे.
किसान कांट्रैक्ट फार्मिग के खिलाफ नहीं हैं, पर नीति आयोग की इस बैठक से किसान नेताओं ने समझ बनाई कि कांट्रैक्ट फॉर्मिग का जो प्रारूप उन्हें थमाया जाने वाला है, उसके तहत उनके हाथ में कुछ रह नहीं जाएगा. भले ही तकनीकी रूप से वे जमीन के मालिक बने रहें.
असलियत यह है कि नीति आयोग की इस बैठक के बाद ही पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काम कर रही किसान यूनियनों का माथा ठनक गया. उन्होंने सरकार के कदमों का पूर्वानुमान लगाकर बैठकें और पेशबंदी करनी शुरू कर दी. कोरोना काल में जब राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगी थी, सरकार तीन अध्यादेश लेकर आई.
पंजाब के किसान इसके खिलाफ जुलूस तो नहीं निकाल सकते थे, पर वे विरोध-स्वरूप अपनी छतों पर अध्यादेशों के खिलाफ तख्तियां लेकर खड़े हो गए. यह थी उस किसान आंदोलन की शुरुआत जो तकरीबन साल भर चला, और जिसने सरकार को संसद में पास हो चुके कानून को वापस लेने के लिए बाध्य कर दिया.
इसमें कोई शक नहीं कि चुनी हुई सरकार को फैसले लेने का अधिकार होता है, और उसे इसका उपयोग भी करना चाहिए. लेकिन, इससे पहले उसे फैसले के पीछे की नीयत पर यकीन भी दिलाना होगा. मोदी सरकार ने किसानों को तरह-तरह की सब्सिडियां (जैसे किसान सम्मान योजना) देने की व्यवस्था की है. पर ये छोटी-छोटी सब्सिडियां उनकी जमीन पर पड़ने वाले किसी काले साये को उनकी नजर से ओझल नहीं कर सकतीं.