कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: नदियों का जीना-मरना चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता?
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: February 26, 2022 08:47 AM2022-02-26T08:47:26+5:302022-02-26T08:51:44+5:30
आज जो नदियां मैल व गंदगी ढोने को अभिशापित हैं, वे धरती पर अपने अवतरण के वक्त से ही जीवन बांटती आई हैं।
पहले चुनाव आते थे तो आम लोगों के रोटी, कपड़ा और मकान कहें या उनके जीवन निर्वाह से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चर्चाएं हुआ करती थीं. पार्टियां व प्रत्याशी मतदाताओं को इन मुद्दों से जुड़ा अपना नजरिया व नीतियां समझाते नहीं थकते थे. साथ ही बार-बार अपीलें करते थे कि मतदाता बूथों पर जाएं तो किसी के बहकावे में न आएं और इन मुद्दों के आधार पर ही वोट दें.
लेकिन अब चुनाव आते हैं तो जानबूझकर ऐसे मुद्दों को हाशिये में डालकर कुछ बहकाने वाले मुद्दों को आगे ला दिया जाता है और सारी बहसें उन्हीं के इर्द-गिर्द ही होने लगती हैं ताकि मतदाताओं की जातियां व धर्म आगे आ जाएं और किए जाने वाले इमोशनल अत्याचार से वे इतने त्रस्त हो जाएं कि ‘अपनी जाति’ व ‘अपने धर्म’ से आगे सोच ही न सकें. फिर उन्हीं के आधार पर सरकार चुन लें और फुर्सत से पश्चाताप करते रहें.
इन विधानसभा चुनावों में इसकी सबसे बड़ी नजीर यह है कि पंजाब में पीने के पानी के जहरीले हो जाने की जटिल होती जा रही समस्या वहां मतदान के दिन तक मुद्दा नहीं बन पाई. यह तब था, जब कभी पांच नदियों के पानी के लिए जाने जाने वाले इस प्रदेश में जहरीला पानी पीने की मजबूरी के शिकार अनेक नागरिक कैंसर से पीड़ित होकर त्रसद मौतों के शिकार हो रहे है.
और जब यह समस्या मुद्दा ही नहीं बन पाई तो इसी पर चर्चा क्यों होती कि उसके पीछे बीती शताब्दी के सातवें दशक में हरित क्रांति लाने की कोशिशों के दौरान अत्यधिक अनाज उगाने के लिए अपनाई गई कृषि पद्धति है, जो रासायनिक उर्वरकों पर कुछ ज्यादा ही निर्भर है और अब अपना विकल्प तलाशे जाने की मांग करती है.
लेकिन सच पूछिए तो बात इतनी-सी ही नहीं है. पंजाब में विधानसभा चुनाव खत्म हो चुके हैं और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी उसके चार चरण संपन्न हो चुके हैं, तो भी मानव जीवन की रेखा कही जाने वाली नदियों से उनका ही जीवन छीन लेने पर आमादा प्रदूषण न सत्तापक्ष के लिए चुनाव का कोई मुद्दा है, न ही विपक्षी दलों के लिए.
भले ही नदियां न केवल लोगों की प्यास बुझाती आई हों बल्कि उनकी आजीविका का माध्यम भी हों. साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र और भूजल के स्तर को बनाए रखने में भी बड़ा योगदान देती हों.
एक जानकार के शब्द उधार लें तो आज जो नदियां मैल व गंदगी ढोने को अभिशापित हैं, वे धरती पर अपने अवतरण के वक्त से ही जीवन बांटती आई हैं. खास तौर पर मनुष्य की बात करें तो उसका जीवन-मरण किस तरह नदियों पर निर्भर है, इसे यों समझ सकते हैं कि मनुष्य के मरणोपरांत उसके शारीरिक अवशेष भी नदियों में बहाए जाते हैं.
ऐसे में कायदे से होना तो यह चाहिए था कि लगातार बढ़ते जा रहे प्रदूषण के कारण अस्तित्व के खतरे ङोल रही नदियों और उनके बहाने मानव जीवन को पैदा हो रहे अंदेशों पर भरपूर चर्चा होती.
इस कारण और कि इंग्लैंड की यॉर्क यूनिवर्सिटी द्वारा दुनिया भर की नदियों में दवाओं के अंशों का पता लगाने के लिए हाल में ही किए गए शोध से खुलासा हुआ है कि अब नदियों के जल के लिए पैरासिटामॉल, निकोटिन व कैफीन के अलावा मिर्गी और मधुमेह आदि की वे दवाएं भी खतरा बनती जा रही हैं, जिनके अंश लापरवाही से नदियों के हवाले कर दिए जा रहे हैं.
किसी एक देश में नहीं प्राय: दुनिया भर में. अमेरिका की प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा प्रकाशित की गई इस शोध की रिपोर्ट में इस स्थिति को पर्यावरण के साथ ही मानव स्वास्थ्य के लिए भी घातक बताया गया है.
यॉर्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने इस शोध के लिए 104 देशों में नदियों की शहरों व कस्बों के नजदीक बहने वाली 1052 साइटों से उनके पानी के नमूने एकत्रित किए और उनमें सक्रिय 61 दवाओं के अंशों (एपीआई) का परीक्षण किया तो पाया कि दवा निर्माण संयंत्रों से निकले दूषित जल, बिना उपचार के सीवरेज के पानी, शुष्क जलवायु और कचरा निपटान के तरीके का नदियों के पानी को प्रदूषित करने में योगदान लगातार बढ़ रहा है.
हां, जिन देशों में आधुनिक दवाओं का इस्तेमाल कम होता है या उनके अंशों के अत्याधुनिक दूषित जल उपचार का ढांचा और नदियों में पर्याप्त बहाव है, वहां वे दवा प्रदूषण से अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं.
दवाओं से नदी जल प्रदूषण की समस्या इसलिए भी जटिल हो रही है क्योंकि ज्यादातर देशों में दवा उद्योग से निकले प्रदूषित जल के निपटान के कानून बने तो हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा.