कांग्रेस क्यों पिछड़ती चली गई और अब मल्लिकार्जुन खड़गे के आने से क्या बदल जाएगी तस्वीर?

By राजेश बादल | Published: October 28, 2022 08:54 AM2022-10-28T08:54:01+5:302022-10-28T08:54:01+5:30

पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस के आनुषंगिक संगठनों के निर्जीव होने से उनमें समाज के अलग-अलग वर्गों का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे समाप्त होता गया. इसलिए उन वर्गों में पार्टी की अपनी विचारधारा के प्रसार की धारा सूख गई. अब जरूरी ये भी है कि नए लोगों को मौके दिए जाएं. सहयोगी संगठनों में प्राण फूंकने का लाभ यह भी मिलेगा कि युवा पीढ़ी का नया नेतृत्व सामने आएगा.

Why did the Congress lag behind and now what will the picture change with Mallikarjun Kharge | कांग्रेस क्यों पिछड़ती चली गई और अब मल्लिकार्जुन खड़गे के आने से क्या बदल जाएगी तस्वीर?

कांग्रेस में अब नए खून को आगे आने का मौका देना जरूरी (फाइल फोटो)

कांग्रेस के बुजुर्ग मुखिया का ऐलान ठहरे हुए पानी को बहने का रास्ता देने जैसा है. दो तीन दशक से पार्टी में नेतृत्व की दूसरी और तीसरी पंक्ति को उभरने के अवसर सिकुड़ कर रह गए थे. पुरानी पीढ़ी नई नस्ल को आगे नहीं आने देना चाहती थी. परिणाम यह निकला कि बूढ़े हो रहे नेताओं ने नतीजे देने बंद कर दिए. उन्हें जहां भी भेजा जाता, वे कांग्रेस की हार की इबारत लिख कर चले आते. बेशक कुछ अपवाद भी हो सकते हैं. पर हकीकत तो यही है कि उन्होंने नए खून को आगे आने से रोका और नया खून विरोधी पार्टियों में अवसर खोजने के लिए जाने लगा. 

उसे इसका फायदा भी मिला. आज हम देखते हैं कि अनेक प्रदेशों में कांग्रेस से बाहर गए नौजवानों ने अपनी कामयाबी की नई दुनिया बसा ली है. अब उन्हें वापस लाना तो संभव नहीं, लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे की घोषणा के बाद यदि पलायन रुक जाए और वैचारिक आधार वाली एक ठोस नई पीढ़ी सामने आए तो यह पार्टी के लिए पुनर्जन्म जैसी कोई घटना हो सकती है. कुल संख्या के आधे स्थान नए लोगों के लिए सुरक्षित रखने का फैसला आने वाले दिनों में क्रांतिकारी साबित हो सकता है.  

वास्तव में औसत मतदाता के लिए यह पहेली ही थी कि लंबे समय तक सत्ता में रहा एक दल अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता, सामाजिक सद्भाव, विकास के निरंतर कीर्तिमान और स्वाधीनता आंदोलन की शानदार विरासत के बाद भी चुनाव दर चुनाव इस तरह दुर्बल और बारीक क्यों होता जा रहा है. उसका मत प्रतिशत क्यों घटता जा रहा है और उसके हाथ से राज्यों की सरकारें क्यों फिसलती जा रही हैं. 

कुछ कारण तो एकदम साफ थे. वे किसी पर्दे के पीछे नहीं छिपे थे. असफलताओं की वजहें सब जानते थे, लेकिन उन कमियों को दूर करने के प्रयासों को गंभीरता से नहीं लिया गया और न ही उनके परिणाम मिले. पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस कमजोर कड़ी को पहचाना कि गांधी नेहरू परिवार ने अगर इस पार्टी को शिखर पर पहुंचाया है तो उसके लगातार नेतृत्व करते रहने से पार्टी को नुकसान भी हुआ है. 

एक तो आम कार्यकर्ता के मन में धारणा यह बनी कि उसके लिए शिखर पद पर पहुंचने के द्वार बंद हो चुके हैं और जो भी अध्यक्ष पद पर आएगा,वह एक ही कुनबे से आएगा. ऐसी स्थिति में कांग्रेस अन्य राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों से कैसे अलग मानी जा सकती है, जिनमें कभी चुनाव नहीं होते और बरसों से एक ही परिवार उनकी अगुआई कर रहा है या फिर एक फरमान जारी करके मुखिया नियुक्त किया जा रहा है. 

भारतीय लोकतंत्र का यह स्याह पहलू है कि सियासी पार्टियां अपने भीतर ही लोकतंत्र की हत्या कर बैठी हैं. आज ये पार्टियां अधिनायकवादी सोच और प्रवृत्तियों की आलोचना तो करती हैं, लेकिन अपना घर ठीक नहीं करना चाहतीं. दूसरी बात यह थी कि कांग्रेस के आम कार्यकर्ता में संघर्ष करने की भावना विलुप्त हो गई. वह अपने दल के वैचारिक आधार पर ही सवाल उठाने लगा. इस तरह पार्टी अपने ब्रांड पर निर्भर हो गई. 

जमीन से जुड़े लोग सोचने लगे कि दल के लिए उन्हें काम करने की आवश्यकता क्या है ? जब तक शिखर पर गांधी - नेहरू परिवार बैठा है तो उसकी साख या चेहरे पर ही लोगों के वोट मिलेंगे. वे आलसी और अवसरवादी हो गए. इससे कांग्रेस को बड़ा झटका लगा. राहुल गांधी ने वक्त पर नब्ज पहचानी और पार्टी को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए बाध्य किया. निश्चित रूप से समय की मांग यही है कि अब राहुल और प्रियंका आम कार्यकर्ता की तरह कांग्रेस की सेवा करते रहें. पद यात्राएं करें, जमीन पर सुप्त तथा निर्जीव पड़े संगठन को चुस्त बनाएं और कांग्रेस के सहयोगी संगठनों का मजबूत तंत्र विकसित करें. 

दरअसल कांग्रेस के आनुषंगिक संगठनों के निर्जीव होने से उनमें समाज के अलग-अलग वर्गों का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे समाप्त होता गया. इसलिए उन वर्गों में पार्टी की अपनी विचारधारा के प्रसार की धारा सूख गई. मसलन कुछ दशक पहले तक वकीलों,डॉक्टरों, शिक्षकों, व्यापारियों, छात्रों, महिलाओं और औद्योगिक घरानों का जिस तरह प्रतिनिधित्व हुआ करता था, वह गायब हो गया. इन वर्गों के प्रकोष्ठों की उपयोगिता अपना विजिटिंग कार्ड छपाने अथवा अपनी दुकान चलाने तक सिकुड़ कर रह गई. 

यदि कांग्रेस देखना चाहे तो पाएगी कि उसकी प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी में ऐसे प्रकोष्ठ बेहद सक्रिय हैं. यही नहीं, उसके आनुषंगिक संगठन भी जमीनी तौर पर गहरी जड़ें जमा चुके हैं. मल्लिकार्जुन खड़गे को इन प्रकोष्ठों तथा सहयोगी संगठनों में प्राण फूंकने का लाभ यह मिलेगा कि युवा पीढ़ी का नया नेतृत्व सामने आएगा.

इसमें संदेह नहीं कि आज युवाओं का एक वर्ग भ्रष्टाचार और राजनीति के आपराधिक गठजोड़ से दुखी है और देश में साफ सुथरी राजनीति देखना चाहता है तो दूसरा वर्ग ऐसा भी है, जो सियासी परिवारों में अनैतिक ढंग से पैसा कमाना, गुंडागर्दी और ताकत के बल पर वोटों को जुटाना ही असल राजनीति समझता है. उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत - चारों तरफ ऐसे उदाहरण मिलते हैं. कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए इस वर्ग से निपटना एक बड़ी चुनौती हो सकती है क्योंकि ऐसे तत्व उनकी अपनी पार्टी के भीतर भी हैं.

Web Title: Why did the Congress lag behind and now what will the picture change with Mallikarjun Kharge

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे