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कपिल सिब्बल का ब्लॉग: अदालतों के कामकाज और तरीकों पर सरकार के किसी भी मंत्री की टिप्पणी क्यों ठीक नहीं है?

By कपील सिब्बल | Updated: December 28, 2022 08:26 IST

सरकार के किसी भी मंत्री को इस तरह की सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करनी चाहिए कि अदालत कैसे काम करे। यह ठीक वैसा ही है जैसे सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को इस पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए कि संसद या विधानसभा को सदन के भीतर अपने मामलों को कैसे संभालना चाहिए.

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उच्च न्यायपालिका के कामकाज पर कानून मंत्री के अकारण बयानों से छिड़ी हालिया बहस ने उठाए गए मुद्दों के बारे में उनकी अज्ञानता को उजागर कर दिया है. पहले मैं संसदीय संप्रभुता के बारे में हाल ही में व्यक्त की गई कुछ भ्रांतियों का निवारण करना चाहता हूं. भारत में कोई भी संस्था पूर्ण संप्रभुता का दावा नहीं कर सकती है. 

संसद इस हद तक संप्रभु है कि यह उन प्रक्रियाओं के माध्यम से कानून बनाती है जो संविधान में स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं और संसद और राज्यों के विधानमंडलों द्वारा बनाए गए नियमों के तहत हैं. केवल संसद ही संविधान में प्रदान की गई प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अधीन, संविधान में संशोधन कर सकती है.

लेकिन संशोधन करने की शक्ति में संविधान की मूल विशेषताओं को नष्ट करने की शक्ति शामिल नहीं है. केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों ने यह फैसला सुनाया था. न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की मूलभूत विशेषताओं में से एक है.

अगर हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता किया जाता है तो हमारी राजनीति लोकतांत्रिक नहीं रहेगी. हमें दुनिया के किसी भी अन्य गैर-लोकतांत्रिक राष्ट्र की तरह तानाशाह माना जाएगा. मुझे नहीं लगता कि देश के 1.4 अरब लोग कभी उस स्थिति को स्वीकार करेंगे. मेरे विचार से संसदीय संप्रभुता की अवधारणा एक मिथक है. जो संप्रभु है वह है हमारा संविधान, जिसमें यह मूल विचार निहित है कि कानून का शासन कायम रहे.

इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसके समक्ष आने वाले किसी भी विषय पर कानून का ब्यौरा संसद सहित सभी संस्थानों पर बाध्यकारी होता है. बाध्यकारी फैसले को उलटने के इरादे से कानून बनाने का कोई भी प्रयास स्वयं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक माना जाता है. कानून के शासन की सर्वोच्चता एक मार्गदर्शक कारक है जो हमें हमारे संविधान के लोकाचार को बनाए रखने में मदद करता है.

कानून मंत्री द्वारा शुरू की गई बहस कई मायनों में त्रुटिपूर्ण है. सबसे पहले, सरकार के किसी भी मंत्री को इस पर सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करनी चाहिए कि अदालत को कैसे काम करना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को इस पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए कि संसद या विधानसभा को सदन के भीतर अपने मामलों को कैसे संभालना चाहिए. जिस तरह से अदालत कार्य करती है, वह अदालत का आंतरिक मामला है और जिस तरह से संसद कार्य करती है वह अपनी प्रक्रियाओं के अंतर्गत उसका आंतरिक मामला है.

सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश इस बारे में सलाह नहीं दे सकता कि संसद और विधानसभाओं का कामकाज कैसे चलाया जाना चाहिए. अदालत केवल ऐसे मुद्दों की प्रक्रिया की वैधता पर विचार कर सकती है जो अदालत द्वारा तय किए जा सकते हैं.

दूसरा मुद्दा अदालती अवकाश के संबंध में उठाए गए सवाल से संबंधित है. इस वर्ष संसद ने 57 दिन काम किया. सर्वोच्च न्यायालय का कामकाज एक वर्ष में 260 दिनों तक होता है, वह भी अवकाशकालीन न्यायालयों के अलावा, जब अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई के लिए पीठों का गठन किया जाता है जो न्यायालय के नियमित कामकाज का इंतजार नहीं कर सकते. 

उदाहरण के लिए, क्या सुप्रीम कोर्ट को संसद को सलाह देनी चाहिए कि वह थोड़ा और काम करे और अपनी बैठक 57 दिन से बढ़ाकर 260 दिन कर दे? मुझे विश्वास है कि यह अनुचित होगा. संविधान ने प्रत्येक संस्थान की रूपरेखा तय की है और उन्हें कानून के शासन के अधीन अपने मामलों का संचालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी है.

इसके अलावा, अदालत के जज सुबह 10.30 बजे बैठते हैं और दोपहर के भोजन के लिए एक छोटे से ब्रेक के साथ शाम 4 बजे तक काम करते हैं. जज का काम यहीं खत्म नहीं हो जाता. न्यायाधीश को अगले दिन के लिए घर पर फाइलों को पढ़ना पड़ता है, और सर्वोच्च न्यायालय में प्रतिदिन फाइलों की औसत संख्या 60 से 70 तक होती है. इसमें रोज तीन से चार घंटे का समय लग जाता है. इसी बीच, दिन के दौरान सुने गए मामलों पर अदालती आदेशों को अंतिम रूप दिया जाता है. न्यायाधीश प्रशासनिक कार्यों का भी निर्वहन करते हैं.

यह सप्ताह में सातों दिन का काम है. बहुत कम लोकसेवक इस तरह की व्यस्त दिनचर्या का पालन करते हैं. इसके अलावा, जिन छुट्टियों के बारे में मंत्री ने बात की, वे सुनाए जाने वाले निर्णयों का मसौदा तैयार करने में खर्च की जाती हैं. मंत्री का यह कथन कि सर्वोच्च न्यायालय को जनहित याचिकाओं (पीआईएल) और जमानत के लिए आवेदनों पर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए अदालत की संवैधानिक प्रतिबद्धता और काम को लेकर उसकी सराहना की कमी को प्रदर्शित करता है.

जब कार्यपालिका लड़खड़ाती है तो अदालतें जनहित की रक्षा करने के लिए बाध्य होती हैं, यह 1970 के दशक से सर्वोच्च न्यायालय की एक संस्थागत प्रथा है. जहां तक जमानत अर्जियों का सवाल है, मुझे यकीन है कि सरकार नहीं चाहेगी कि जमानत अर्जियों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो. हाल ही में, हमने सरकार की अभियोजन एजेंसियों द्वारा राजनीतिक विरोधियों, छात्रों, पत्रकारों और अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित लोगों को उन कारणों से निशाना बनाने और हिरासत में लेने के उदाहरण देखे हैं, जिन्हें यहां बताने की आवश्यकता नहीं है.

कॉलेजियम सिस्टम की मंत्री की आलोचना कुछ हद तक जायज है. विश्वास जगाने और इसके विचार-विमर्श में पारदर्शिता लाने के लिए इसमें सुधार की जरूरत है. लेकिन सरकार की चिंता इस तथ्य के प्रति अधिक दिखती है कि उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामलों में वह (न्यायपालिका) अंतिम न्यायकर्ता नहीं है. एक के बाद एक संस्थानों पर कब्जा करने के बाद अब सरकार आजादी के अंतिम गढ़ पर कब्जा करना चाहती है. वह ऐसे लोगों को नियुक्त करना चाहती है जो सत्ताधारी दल की विचारधारा से इत्तफाक रखते हों.

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