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विश्वनाथ सचदेव का नजरियाः धार्मिक बहुलता की ताकत को कमजोर न करें 

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: December 20, 2018 04:57 IST

धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की विशेषता और ताकत है. यह हमें तय करना है कि हम यह ताकत बनाए रखना चाहते हैं या कमजोर होना.

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बचपन में पिताजी फारसी का एक  ‘शेर’ सुनाया करते थे ‘हाफिजा गर वसल ख्वाही/ सुलेह कुल बा खास-ओ-आम/ बा मुसलमां अल्ला-अल्ला बा बिरहमिन राम राम.’ उन्होंने इसका जो अर्थ बताया था वह यह था कि यदि दुनिया में शांति से रहना है तो सबको खुश रखो, सबका आदर करो. बाद में पता चला कि यह ‘शेर’ महान सूफी संत हाफिज शिराजी का है जिसमें विभिन्न धर्मो को मानने वालों को जीने का मंत्र सिखाया गया है. हाफिज का यह  ‘शेर’ हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के नजदीक लाने की एक कोशिश थी. 

पिताजी द्वारा बचपन में यानी आज से पचास-साठ साल पहले सुनाया गया यह हाफिज का शेर आज एक खबर पढ़कर अचानक याद आ गया. यह खबर अखबार के भीतरी पन्नों में थी जिसमें कहा गया था उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के एक गांव में स्कूल के अध्यापक ने बच्चों को इसलिए पीट दिया कि वे सलाम कहने के बजाय नमस्ते या गुड मॉर्निग कहते थे. बच्चों ने इसकी शिकायत की और आरोपी अध्यापक को फिलहाल निलंबित कर दिया गया है. जाहिर है अध्यापक मुसलमान है और ‘पीड़ित बच्चे’ हिंदू. अध्यापक द्वारा विद्यार्थियों से जबर्दस्ती ‘सलाम’ कहलवाना और न कहने पर उन्हें पीटना प्रथम दृष्ट्या गलत लग रहा है. लेकिन मेरे मन में यह खबर पढ़कर यह सवाल भी उठा कि यदि अध्यापक नमस्ते बोल देता या विद्यार्थी सलाम कह देते तो क्या गलत हो जाता. 

आखिर सलाम या नमस्ते या गुड मॉर्निग का मतलब तो उसकी कुशलता की कामना ही है न जिसे कहा जा रहा है. सलाम अलैकुम अर्थात् मैं आपकी सलामती की दुआ करता हूं. और गुड मॉर्निग का मतलब भी तो यही है कि यह सुबह आपके लिए शुभ हो. नमस्ते का अर्थ तो और भी गहरा है. मैं आपको नमन करता हूं. आपको यानी आपके भीतर के दैवी तत्व को. यह नमन व्यक्ति को विनम्रता भी सिखाता है. जब सामने वाला भी नमस्ते का जवाब नमस्ते से देता है तो वह वस्तुत: विनम्रता के प्रत्युत्तर में अपने विनम्र होने का ही परिचय दे रहा होता है. अभिवादन के इन शब्दों में, चाहे वह सलाम हो या नमस्ते या गुड मॉर्निग, कोई धर्म कहां से आ गया? यह सही है कि हिंदू सामान्यत: नमस्ते या नमस्कार कहते हैं, मुसलमान सामान्यत: सलाम कहते हैं और गुड मॉर्निग तो अब सब कहने लगे हैं. इन शब्दों का धर्म से कोई रिश्ता नहीं है.  

जिस दिन अखबार में ‘सलाम’ न कहने के ‘अपराध’ में स्कूल के बच्चों की पिटाई वाली खबर छपी थी, उस दिन के सारे अखबारों की मुख्य खबर चौंतीस साल पहले, 1984 में, राजधानी दिल्ली में हुए सिख-विरोधी दंगों के एक आरोपी को उम्र कैद की सजा दिए जाने की थी. सच कहा जाए तो 34 साल पहले राजधानी दिल्ली में, और देश के कुछ अन्य हिस्सों में, दंगे नहीं हुए थे, नर-संहार हुआ था. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के विरोध में तीन हजार सिखों की हत्या कर दी गई थी. यह हत्याकांड स्वतंत्र भारत के इतिहास के सर्वाधिक काले अध्यायों में से एक था. ऐसा ही कांड सन 2002 में गुजरात में हुआ था. दिल्ली में हुए हत्याकांड के संदर्भ में दिए गए निर्णय में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने देश के विभाजन के समय हुई सामूहिक हत्याओं का भी हवाला दिया है और कहा है कि 1993 में मुंबई, 2002 में गुजरात में, 2008 में कंधमाल में और 2013 में मुजफ्फर नगर में ‘अल्पसंख्यकों’ पर हमले हुए. न्यायालय की यह टिप्पणी और भी गंभीर है कि इन दंगों में नेताओं और कानून-व्यवस्था बनाए रखने वाली एजेंसियों का हाथ रहा है. 

उच्च न्यायालय ने पंजाबी कवियित्री अमृता प्रीतम की बहुचर्चित कविता ‘आज आखां वारिसशाह नूं’ का हवाला भी दिया है. इस कविता में अमृता प्रीतम ने ‘घृणा के बीज बोये जाने और घृणा की जहरीली फसल के पंजाब में उगने की बात कही थी और यह चेतावनी भी दी थी कि यह नफरत दिल्ली की गलियों तक फैलेगी. यहां दिल्ली का मतलब सिर्फ राजधानी नहीं है, यह दिल्ली सारे भारत का प्रतीक है और सांप्रदायिक हिंसा के जिन उदाहरणों का न्यायालय ने हवाला दिया है, वे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सांप्रदायिकता की आग में सारा देश झुलसेगा. जरूरत इस आग को बुझाने की है और इस बात की भी कि देश में ऐसी स्थितियां न बनें कि इस आग को हवा मिले. ‘सलाम’ और ‘नमस्ते’ के नाम पर विवाद होने का मतलब यही है कि देश के विभाजन से या दिल्ली-अहमदाबाद के दंगों से हम कुछ सीखना नहीं चाहते.  

सूफी संत हाफिज को उद्धृत करने वाले मेरे पिता भी विभाजन की त्रसदी की सजा भुगतने वालों में से थे. पर उन्होंने अपने बच्चों को कटुता का पाठ नहीं पढ़ाया. ‘बा मुसलमां अल्ला-अल्ला, बा बिरहमिन राम-राम’ का मंत्र सिखाने की कोशिश की. मुझे लग रहा है यह कोशिश आज हर जागरूक नागरिक को करनी चाहिए. धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की विशेषता और ताकत है. यह हमें तय करना है कि हम यह ताकत बनाए रखना चाहते हैं या कमजोर होना. सलाम-नमस्ते.

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