विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: ईमानदारी के साथ निपटें पलायन की त्रासदी से
By विश्वनाथ सचदेव | Published: May 21, 2020 02:21 PM2020-05-21T14:21:04+5:302020-05-21T14:21:04+5:30
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का दावा है कि उन्होंने प्रवासी मजदूरों के घर लौटने के अभियान को रोकने के लिए मजदूरों से अपील की थी और वे नहीं माने तो उन्हें अपने-अपने घर पहुंचाने की उचित व्यवस्था का भी हर संभव प्रयास किया. दिल्ली के मुख्यमंत्नी ने भी बार-बार ऐसी अपील की, पर प्रवासी मजदूरों का पलायन जारी रहा. कुछ ऐसी ही बात पंजाब और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों ने भी कही है. और कई राज्यों में भी, यह माना जा सकता है, ऐसा ही हुआ होगा. पर सवाल उठता है इन सारे मुख्यमंत्रियों की बातों पर और केंद्रीय नेतृत्व के आश्वासन पर भी प्रवासी मजदूरों को विश्वास क्यों नहीं हुआ? क्यों सारी दिक्कतें होने के बावजूद ये मजदूर गांव लौटने की जिद करते रहे?
आपदा में अपने परिवार के साथ होने की आकांक्षा एक स्वाभाविक कारण माना जा सकता है इसका. करोड़ों की संख्या में यह पलायन इस एक स्वाभाविक आकांक्षा का परिणाम नहीं हो सकता. स्वाभाविक आकांक्षा तो अपनी धरती पर, अपने परिवार के साथ रहकर जीवनयापन की भी होती है. ऐसा होता तो यह सारे प्रवासी अपने घर छोड़कर परदेस जाते ही नहीं. विवशताएं व्यक्ति को बहुत कुछ अनचाहा करने के लिए मजबूर कर देती हैं. इसी विवशता ने कभी उन्हें घर छोड़ने के लिए बाध्य किया था और इन्हीं विवशताओं के चलते आज भी उसी घर लौट रहे हैं, जहां उनके जीवनयापन की सुविधा और अवसर नहीं थे.
लॉकडाउन के पिछले डेढ़-दो महीने के दौरान देशभर में प्रवासी कामगारों की दुर्दशा की स्थितियां किसी से छिपी नहीं हैं. रोजगार छिन गए, रहने की सुविधा बची नहीं, मेहनत करके रोटी खाने वाले भीख मांगकर पेट भरने की स्थिति में पहुंच गए. सैकड़ों-हजारों किमी पैदल चलने का हौसला लेकर घरों की ओर निकल पड़ने वालों के मुंह से इस आशय के वाक्य आए दिन टीवी चैनलों पर सुनाई देते हैं कि ‘यहां रहकर भी भूखे मरना है तो गांव में ही जाकर क्यों न मरें.’ इस तरह की बातें हौसला करके नहीं, हौसला खोकर निकलने वाले ही कर सकते हैं.
सवाल है हौसला खोने की यह स्थिति क्यों बनी, क्या इसके लिए हौसला खोने वाले ही दोषी हैं या फिर और भी कुछ कारण हैं इसके.
कारण बहुत से गिनाए जा सकते हैं. पर बेमानी होगा यह सब. महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि आजादी के लगभग 75 साल बाद भी हम अपने नागरिकों को जीने का वह अधिकार नहीं दे पाए जिसकी गारंटी हमारा संविधान देता है. जीने का मतलब और कुछ नहीं तो इतना तो होता ही है कि व्यक्ति को दो समय का खाना, तन ढंकने के लिए कपड़ा और सिर पर एक छत मिले. क्या हम इतना भी देश के हर नागरिक को दे पाए हैं.
सवाल सिर्फ कोरोना संकट के समय उत्पन्न परिस्थितियों का ही नहीं है. सवाल उन नीतियों के औचित्य का है जिनके चलते 21वीं सदी के भारत में किसी नागरिक को भूखा रहना पड़ रहा है. सवाल यह भी नहीं है कि ये नीतियां जवाहरलाल नेहरू की थीं या नरेंद्र मोदी की, सवाल इस हकीकत का है कि 75 साल की कल्याणकारी योजनाओं के दावों के बावजूद आज देश के इन बड़े शहरों में भी लोग भूखे सोने को मजबूर क्यों हैं? पिछले महीने, यानी अप्रैल के मध्य में सामाजिक न्याय मंत्नालय ने एक रपट में स्वीकार किया था कि सिर्फ 10 शहरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु हैदराबाद, नागपुर, इंदौर, लखनऊ और पटना में सवा करोड़ से अधिक लोगों के भूखे रहने की नौबत है. इसके बावजूद हमारी सरकारें यह दावा करती हैं कि हमारे यहां भूख से कोई नहीं मरता.
कहीं कोरोना काल में पैदल घर जाने के लिए मजबूर दो युवकों में से एक ने रास्ते में दम तोड़ दिया. सरकारी रिपोर्ट में बताया गया डिहाइड्रेशन से मरा है युवक. यह जानने की जरूरत किसी ने महसूस नहीं की कि मई की भीषण गर्मी में पैदल या खुले ट्रक में यात्ना के लिए विवश इन युवाओं के पेट में खाना पहुंचा भी था या नहीं? सरकारें इन बेचारों को तीन समय का खाना देने के दावे कर रही हैं. स्वयंसेवी संस्थाएं और संवेदनशील नागरिक भी हर संभव मदद कर रहे हैं. इस सबके बावजूद इस कोरोना काल के पलायन के दृश्य हमारी समूची संवेदनाओं को चुनौती दे रहे हैं.
संकट आते हैं, निकल भी जाते हैं. यह संकट भी निकल जाएगा. पर इस संकट ने जो चुनौतियां हमारे सामने खड़ी कर दी हैं, उनका सामना करने की तैयारी जरूरी है. ये चुनौतियां आर्थिक हैं, सामाजिक भी हैं और मनोवैज्ञानिक भी. इन सबका सामना हमें करना ही होगा, पर एक चुनौती यह भी है कि हम हर स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाने के लालच से कब उबरेंगे. इस लालच का शिकार सत्तारूढ़ दल भी है और विपक्ष भी. साथ मिलकर काम करने के बजाय हमारे राजनेता, चाहे वह किसी भी रंग के हों, एक-दूसरे पर उंगली उठाने में लगे हैं. यह सही है कि जो सत्ता में होता है उसे ज्यादा सवालों का उत्तर देना पड़ता है, पर जनसेवा की ईमानदार कोशिश की अपेक्षा हर राजनीतिक दल से होती है. कोरोना ने एक मौका दिया है हमारे राजनीतिक दलों को.
हमारे प्रधानमंत्नी अक्सर संकट को अवसर बनाने की बात करते हैं इस संकट को भी अवसर माना जाना चाहिए. आत्मनिर्भर भारत बनाने का ही नहीं, हमारी राजनीति में थोड़ी सी शुचिता लाने का अवसर, ईमानदारी से कुछ सही काम करने का अवसर. भारत आत्मनिर्भर बने यह तो अच्छी बात है, इससे भी अच्छी और जरूरी बात यह है कि हम अपनी नीयत सुधारें. यहां हमसे मतलब हमारे राजनेताओं से है जो इस संकट काल में भी राजनीतिक दांवपेंचों से उबर नहीं पा रहे. यह समय ओछी राजनीति का नहीं है, अपनी ईमानदारी और निष्ठा को प्रमाणित करने का है. कौन स्वीकारेगा यह चुनौती?