रंगभेद को अपने मन के भीतर से मिटाना होगा, विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: July 3, 2020 14:33 IST2020-07-03T14:32:52+5:302020-07-03T14:33:46+5:30
अमेरिका, यूरोप ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका.. सब तरफ वर्ण-भेद के खिलाफ जैसे एक तूफान-सा उठ आया था. जार्ज फ्लॉयड की दम घुटने वाली बात ने एक बार फिर रंग-भेद के खिलाफ मानवीय पीड़ा और आक्रोश को साकार कर दिया.

दुनिया के अन्य कई देशों की तरह ही हमारे भारत में भी गोरापन कम गोरे या सांवले या काले रंग से बेहतर समझा जाता है.
अमेरिका के उस गोरे पुलिस वाले ने मई 2020 के अंतिम सप्ताह में एक अश्वेत, जार्ज फ्लॉयड का गला घुटने से दबाकर उसकी हत्या कर दी थी. वह कहता रहा मेरा दम घुट रहा है, पर जैसे किसी ने कुछ नहीं सुना.. और वह मर गया.
यह सही है कि तब वहां किसी ने उसकी आवाज नहीं सुनी थी, पर उसके मरने के बाद वह आवाज दुनिया भर में गूंजी. अमेरिका, यूरोप ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका.. सब तरफ वर्ण-भेद के खिलाफ जैसे एक तूफान-सा उठ आया था. जार्ज फ्लॉयड की दम घुटने वाली बात ने एक बार फिर रंग-भेद के खिलाफ मानवीय पीड़ा और आक्रोश को साकार कर दिया.
आक्रोश कुछ ऐसा था कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प को व्हाइट हाउस में बने बंकर में शरण लेनी पड़ी. रंगभेद के खिलाफ अमेरिका का, और कई अन्यान्य देशों का यह गुस्सा और एक अश्वेत की चीख, आज मुङो एक और संदर्भ में याद आ रही है.
हालांकि फ्लॉयड के साथ हुई बर्बरता का इस संदर्भ से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी जब भारत में गोरेपन की एक क्रीम के खिलाफ आवाज उठी और इस क्रीम की निर्माता कंपनी ने क्रीम के नाम से ‘फेयर’ शब्द हटा लेना स्वीकार कर लिया, तो न जाने क्यों मुङो लगा यह भी रंगभेद के खिलाफ आदमी की लड़ाई की एक और मोर्चे पर जीत है.
अंग्रेजी के इस शब्द ‘फेयर’ का एक मतलब होता है ‘न्यायोचित’ और दूसरा ‘गोरा’
अंग्रेजी के इस शब्द ‘फेयर’ का एक मतलब होता है ‘न्यायोचित’ और दूसरा ‘गोरा’. यह क्रीम गोरा बनाने की शर्तिया दवा के रूप में एक लंबे अरसे से बेची जा रही है और यह सवाल भी अब उठ रहा है कि गोरेपन को नारी (या पुरुष भी) के सौंदर्य का एक पैमाना मानना कितना न्यायोचित है.
दुनिया के अन्य कई देशों की तरह ही हमारे भारत में भी गोरापन कम गोरे या सांवले या काले रंग से बेहतर समझा जाता है. यही नहीं, गोरेपन के प्रति हमारा स्नेह इतना अधिक है कि गोरी को हमने नारी का पर्याय बना दिया है. पता नहीं गोरेपन के प्रति मोह की यह शुरु आत कब और कैसे हुई होगी, पर यह हकीकत है कि सुदूर अतीत में कभी शुरू हुई यह मान्यता आज भी हमारी सोच पर हावी है.
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि आज भी देश के अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में वर-वधू का, विशेषकर वधू का गोरापन सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण गुण समझा जाता है. नब्बे प्रतिशत विज्ञापनों में हम यह शब्द देख सकते हैं- और जहां लड़की को गोरा नहीं कही जाने वाली स्थिति हो वहां ‘गेहुंआ’ शब्द से काम चलाना जरूरी समझा जाता है!
अफ्रीका में भले ही ‘ब्लैक इज ब्यूटीफुल’ का आंदोलन चला हो
अफ्रीका में भले ही ‘ब्लैक इज ब्यूटीफुल’ का आंदोलन चला हो पर हमारे देश में आज भी सुंदरता का एक प्रतिमान गोरापन भी है. और यह भी एक विडंबना नहीं तो और क्या है कि जहां दुनिया की गोरी चमड़ी वाले अपना रंग कुछ कम गोरा करने के लिए धूप में समुद्र तटों पर नंगे बदन पड़े रहते हैं, भारत जैसे धूप वाले देश में लंबी-लंबी यात्नाएं करते हैं, वहीं हम भारतवासी गोरेपन की तलाश में नई से नई क्र ीम खोजते फिरते हैं.
गोरापन देने का दावा करने वाली क्रीम इसलिए बिकती है कि हमने यानी समाज ने यह मान लिया है कि गोरापन का मतलब सुंदरता है. हालांकि इस बात पर भी बहस हो सकती है कि ऐसा क्यों मान लिया गया, पर मूल बात इस मानसिकता के औचित्य की है. यह मानसिकता आदमी और आदमी के बीच दीवार खड़ी करती है, एक व्यक्ति को दूसरे से छोटा या बड़ा घोषित करती है.
सभी मनुष्य समान हैं, के आधार पर अमेरिकी पूर्वजों ने ‘एक नई दुनिया का निर्माण’ करने की पहल की थी. अब्राहम लिंकन ने मनुष्य की समानता के सिद्धांत के आधार पर एक नए राष्ट्र का सपना दिखाया था, दुनिया को प्रजातंत्न की नई परिभाषा दी थी. जिस अमेरिका में किसी जार्ज फ्लॉयड का दम घुट रहा है, कहना चाहिए कि दम घोंटा जा रहा है, वहां से एक बार फिर रंगभेद के खिलाफ आवाज उठी है.
दुनिया के कई देशों में इस आवाज का पहुंचना और प्रतिध्वनि का गूंजना
दुनिया के कई देशों में इस आवाज का पहुंचना और प्रतिध्वनि का गूंजना, इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मनुष्य की समानता की आवाज को दबाया नहीं जा सकता. वर्ण, वर्ग, धर्म, जाति के आधार पर आदमी और आदमी के बीच अलगाव की दीवारें उठें, यह मनुष्य के होने को एक चुनौती है.
कई-कई रूप हैं इस चुनौती के. ऐसा ही एक रूप गोरेपन को सुंदरता का पर्याय मानना है. काले और गोरे का यह भेद वस्तुत: मनुष्यता का अपमान है. मनुष्यता का ऐसा ही अपमान वह मानसिकता करती है जो जाति के आधार पर मनुष्य का ऊंचा या नीचा होना नापती-तौलती है.
दुर्भाग्य से 21वीं सदी के हमारे भारत में भी हम जाति-प्रथा के कलंक को धो नहीं पाए हैं. जैसे शरीर का रंग वास्तविक सौंदर्य का प्रतिमान नहीं हो सकता, वैसे ही जाति के आधार पर किसी को छोटा या बड़ा नहीं माना जा सकता. धर्म के आधार पर मनुष्य का वर्गीकरण करना भी उतना ही गलत है.
सच तो यह है कि किसी भी तरह के भेदभाव को मानना मनुष्यता को अपमानित करना है, उसे नकारना है. आज मनुष्यता को किसी क्र ीम से नहीं, उसके पीछे की बांटने वाली मानसिकता से खतरा है. अमेरिका में जार्ज फ्लॉयड के साथ जो कुछ हुआ, वह किसी एक पुलिस वाले का एक नागरिक पर किया गया अत्याचार नहीं है.
वहां भी सवाल मानवता को नकारने वाली मानसिकता का है. कई-कई चेहरे हैं इस खतरनाक मानसिकता के, और हर चेहरा बेनकाब होना जरूरी है. हर मोर्चे पर मनुष्यता की समानता का स्वीकार ही मनुष्यता की विजय सुनिश्चित कर सकता है. यह समानता हर कीमत पर आनी चाहिए.