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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: आइए, अपने भीतर भविष्य के प्रति भरोसा जगाएं

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: May 8, 2020 13:23 IST

इस कोरोना-काल ने सारी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है. मुझसे यदि इस अनुभव के बारे में पूछा जाए तो मैं कुछ बता नहीं सकता. एक सन्नाटा सा है - बाहर भी और भीतर भी. भीतर वाला सन्नाटा बाहर वाले सन्नाटे से कहीं ज्यादा भयानक है. एक अंधे कुएं जैसी अनिश्चितता-सी सामने दिखती है. इस कुएं की कोई थाह नहीं. एक अंधेरा है सामने. मुझे लगता है कब तक चलेगा?

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जिस दिन लॉकडाउन शुरू हुआ था न/ उसी दिन उस नन्ही सी चिड़िया ने शुरू किया था/ घोंसला बनाना/ घोंसला बन गया/ अब चिड़िया बैठी रहती है घोंसले में अक्सर/ रोज सवेरे उठकर पहले देखता हूं उसे/ लगता है आज नहीं तो कल/ या फिर उसके बाद का कल/ घोंसला चहकती चींचीं सुनाएगा/ और फिर/ उड़ जाएंगे बच्चे उस घोंसले से/ मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं/ पता नहीं/ लग रहा है क्यों मुझे/ तब घोंसला पूरा होगा.

ये पंक्तियां लगभग एक पखवाड़े पहले लिखी गई थीं. आज वह घोंसला पूरा हो गया. उड़ गए चिड़िया के बच्चे. वह पूरा घोंसला, जिसे देख कर खुश होना चाहिए था, अब मुझे उदास कर रहा है. अब वह चिड़िया भी नहीं आती. चिड़ा भी नहीं. और मैं सोच रहा हूं, कहां चली गई होगी, वह प्यारी-सी, नन्ही-सी, काली-सी चिड़िया?

हां, काली-सी ही कहना चाहिए उसे. उसके काले रंग में भी झलक दिख जाती है और-और रंगों की. मैंने अपने पक्षीप्रेमी बेटे से पूछा था इस प्यारी-सी चिड़िया का नाम. जो नाम उसने बताया उससे निराशा ही मिली मुझे. अंग्रेजी में उसे पर्पल सनबर्ड कहते हैं, उसने बताया था. और हिंदी में? शकरखोरा नाम बताया था उसने. इतनी प्यारी चिड़िया का इतना भद्दा नाम! फिर पता चला हिंदी में एक नाम और भी है इसका नीलारुण कटि सूर्यपक्षी. छोटी सी चिड़िया का इतना बड़ा नाम?

सूर्यपाखी नाम ठीक है, मैंने अपने आप से कहा. सूर्य से इस पक्षी का क्या रिश्ता है पता नहीं, पर इतना पता है कि मेरे घरवाले घोंसले में जन्मी वह नन्ही सी चिड़िया घोंसले से फुदक कर जाली पर जा बैठी थी, फिर उसने अपने पंख फड़फड़ाए, चमकते सूरज वाले आकाश को देखा. फिर शायद मन ही मन अपने नन्हे पंखों को तोला होगा. तभी शायद उसकी मां आ गई थी. चींचीं की प्यारी आवाज में उसने बच्चे से कुछ कहा. शायद उसे उड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी. कह रही होगी, उड़ो, उड़ो! और वह बच्चा सचमुच उड़ गया! तब से न वह चिड़िया आई है अपना घोंसला देखने, न वह चिड़िया का बच्चा लौटा है. हवा में उड़ गया. आकाश तक की उड़ान भरने.

और मुझे एक पंजाबी लोकगीत की पंक्ति याद आ रही है - ‘साडा चिड़िया दा चंबा वे, बाबुल असी उड़  जाणा.’ बेटी कह रही है, हे पिता, हमारा यह चिड़ियों का छोटा-सा झुंड उड़ जाएगा. लोकगीत की अगली पंक्ति है, ‘साडी ऊंची उडारी वे, बाबुल असी नहीं आना.’ ऊंची उडारी यानी ऊंची उड़ान है हमारी, हम फिर लौट कर नहीं आएंगे. सच बात है, बेटियां लौट कर कब आती हैं, जब भी मायके आती हैं, मेहमान होती हैं वे. हमारे लटके हुए मनी प्लांट की बेल पर बने घोंसले में पैदा होने वाली वह चिड़िया ऐसा कुछ कहकर नहीं गई थी. पर मुझे पता नहीं क्यों लगा, और अब भी लग रहा है, वह ऊंची उडारी पर चली गई है जहां से बेटियां लौटकर नहीं आतीं. पता नहीं क्यों मैं उसे चिड़िया मात्न नहीं मानता रहा.

यह लगभग पिछले एक माह का अरसा, एक अनूठे अनुभव का काल रहा है. इस कोरोना-काल ने सारी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है. मुझसे यदि इस अनुभव के बारे में पूछा जाए तो मैं कुछ बता नहीं सकता. एक सन्नाटा सा है - बाहर भी और भीतर भी. भीतर वाला सन्नाटा बाहर वाले सन्नाटे से कहीं ज्यादा भयानक है. एक अंधे कुएं जैसी अनिश्चितता-सी सामने दिखती है. इस कुएं की कोई थाह नहीं. एक अंधेरा है सामने. मुझे लगता है कब तक चलेगा? ऐसे वाली अनिश्चितता ज्यादा मारक है. एक आतंक-सा पसरा हुआ है सब तरफ. निर्थकता का एक डरावना एहसास जब तब घेर लेता है. ऐसे माहौल में वह चिड़िया का घोंसला एक सहारा-सा बना हुआ था. चिड़िया का चहकना सारे माहौल के खालीपन को जैसे भर देता था. हम दो प्राणियों का परिवार अचानक बड़ा हो गया था इस सबसे. मैं और पत्नी वीना रोज सवेरे उठकर पहले उस घोंसले को देखने जाते थे.

मेरी सोनचिरैया तो उड़ गई, पर कितना कुछ छोड़ गई है अपने पीछे. उसके पीछे छोड़े हुए सामान में कोई गुड़िया नहीं है, उसके स्कूल की कोई कॉपी नहीं, जिसमें उसने पेंसिल से रफ स्केच कर छोड़े थे. गुजराती के कवि हैं अनिल जोशी. उन्हें अपनी बेटी के छोड़कर गए बस्ते में एक रबड़ मिला था और एक टुकड़ा बिस्कुट का. इन दो चीजों ने उन्हें एक पूरी कविता दे दी थी. मेरी सोनचिरैया अपनी ऊंची और लंबी उड़ान पर जाने से पहले एक संदेश छोड़ गई है- यह जो खाली घोंसला है न मेरा, यह प्रतीक है जीवन का. कल यह खालीपन नहीं था. आज के खालीपन से क्या डरना. कल फिर कोई चहक इसे भर जाएगी. आने वाले कल को उम्मीदों से सजाओ. चहकती चींचीं कहीं बाहर से नहीं सुनाई देती, यह चहकना भीतर से उठता है. सही है, घोंसला तभी पूरा होता है जब कोई चिड़िया पंख पसार कर उड़ती है. यह उड़ान ही जीवन है. पता नहीं, कितनी ऊंची, कितनी लंबी हो यह उड़ान.

खालीपन कितना ही डरावना हो, अनिश्चितता कितनी ही मारक क्यों न लगे, खालीपन भरता है; क्या होगा, कब होगा, कैसे होगा जैसे सवालों के जवाब समय देता है. कोरोना-काल से पहले क्या था, इसे याद करना बेमानी है; कोरोना काल के बाद की दुनिया हमें स्वयं ही बनानी है. घोंसला खुद बनाना पड़ता है, नन्ही-नन्ही चोंचों में दाना भी खुद डालना पड़ता है और फिर खुद कहना पड़ता है नन्हीं-सी सोन चिरैया को, जा उड़ जा. यह जो चिड़िया उड़ कर गई है न, एक छलांग लगाई है उसने अज्ञात भविष्य में. उसने अपने पंखों पर भरोसा किया है. आइए, इस भरोसे को सलाम करें. इसे अपने भीतर जगाएं.

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