विजय दर्डा का ब्लॉग: आलोचना में बसती है लोकतंत्र की आत्मा !
By विजय दर्डा | Published: April 10, 2023 06:58 AM2023-04-10T06:58:40+5:302023-04-10T07:00:27+5:30
लोकतंत्र वहीं पनपता है, वहीं परिपक्व होता है जहां आलोचना के स्वरों का सम्मान होता है. सत्ता की आलोचना करना देश का विरोध करना नहीं होता है. आलोचना वह जरूरी तत्व है जिसके बगैर लोकतंत्र के मजबूत बने रहने की कल्पना हम कर ही नहीं सकते. हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारा देश लोकतांत्रिक है, हमें नाज है इस पर...!
भारत, अमेरिका, चीन, रूस या फिर अरब देशों या इसी तरह के अन्य देशों में क्या फर्क है? फर्क आप कई नजरिये से महसूस कर सकते हैं. इनकी आर्थिक शक्ति, सामरिक शक्ति या फिर जनजीवन के हालात को लेकर व्याख्या की जा सकती है लेकिन मेरी नजर में सबसे बड़ी व्याख्या है लोकतंत्र का होना या फिर न होना. भारत या अमेरिका में आप अपने मन की बात कह सकते हैं. देश या राज्य की सरकार से आप किसी मुद्दे पर असहमत हैं तो असहमति का इजहार कर सकते हैं लेकिन चीन, रूस, अरब देशों या फिर तानाशाह सत्ताधारियों वाले अफ्रीकी देशों में आप अपने मन की बात करेंगे तो जेल चले जाएंगे या फिर इतने चुपके से ठिकाने लगा दिए जाएंगे कि आपका कुछ अता-पता ही नहीं लगेगा!
दरअसल लोकतंत्र की आत्मा ही आलोचनात्मक विचारों में बसती है. यही सत्य है और इसी सत्य को सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर स्थापित किया है. मलयालम भाषा के एक टीवी चैनल पर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर प्रतिबंध लगा दिया गया था. केरल उच्च न्यायालय ने सरकार के इस आदेश को वैध करार दिया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने इसे वैध नहीं माना. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रेस का कर्तव्य है कि वह सत्ता से सच बोले और नागरिकों के समक्ष उन कठोर तथ्यों को पेश करे, जिनकी मदद से वे लोकतंत्र को सही दिशा में ले जाने वाले विकल्प चुन सकें.
सामाजिक, आर्थिक, राजनीति से लेकर राजनीतिक विचारधाराओं तक के मुद्दों पर एक जैसे विचार लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नागरिकों को उनके लिए किए गए प्रावधानों से वंचित नहीं किया जा सकता. राष्ट्रीय सुरक्षा के दावे हवा में नहीं किए जा सकते. उन्हें साबित करने के लिए ठोस तथ्य होने चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय की इन बातों का मैं हृदय से स्वागत करता हूं.
मानव सभ्यता की विकास यात्रा का इतिहास पढ़ते हुए मैंने पढ़ा था कि आलोचनात्मक चिंतन की वजह से ही मनुष्य ने यह यात्रा की है. चिंतन से स्वाभाविक रूप से कई विचार प्रकट होते हैं. इन विचारों का विश्लेषण हमें नई राह दिखाता है. यदि कोई व्यक्ति कहे कि उसी की विचारधारा सबसे बेहतर है तो फिर जीवन में नए विचार पनपेंगे कैसे? इतने सारे धर्म, इतनी सारी परंपराएं और इतनी सारी संस्कृतियों के जन्म के मूल में विचारों की भिन्नता ही तो है! हिंदुस्तान में करीब-करीब 140 करोड़ लोग हैं. क्या इन सबकी मान्यताएं, इन सबके विचार एक जैसे हो सकते हैं? ...और यदि एक जैसे हो गए तो वह कितना खतरनाक होगा!
लोकतंत्र को जन्म देने वाले हिंदुस्तान ने इस बात को सदियों पहले समझ लिया था क्योंकि हमारे यहां तो कहावत ही है कि हर दस-बीस कोस पर भाषा, वेशभूषा और बोली बदल जाती है. सबके अपने-अपने विचार हैं और सम्मिलित रूप से ये विचार देश को ताकत प्रदान करते हैं.
हमारे सामने इस बात के प्रमाण भरे पड़े हैं कि हिंदुस्तान में लोकतंत्र की विकास यात्रा में आलोचनात्मक विचारों की सबसे बड़ी भूमिका रही है. इंदिराजी का विचार था कि देश को सही राह पर लाने के लिए कठोर आपातकाल की जरूरत है लेकिन जनता ने उनके विचारों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया. ए.आर.अंतुले और जगन्नाथ मिश्र ने आलोचना के स्वरों को प्रतिबंधित करने की कोशिश की तो पूरा देश आंदोलित हो गया क्योंकि विचारों पर ताला लगाने का सीधा सा अर्थ है लोकतंत्र पर ताला लगाना. आजादी के आंदोलन के हमारे नेता इस बात को समझते थे इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी को उन्होंने तरजीह दी.
इसी प्रावधान ने प्रेस को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का खिताब दिया. अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है. नेहरूजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक कवि सम्मेलन का आयोजन था जिसे हरिवंशराय बच्चन ने आयोजित किया था. बच्चनजी से मिलने उसी समय जनकवि बाबा नागार्जुन भी आए हुए थे. इंदिराजी ने उन्हें भी आमंत्रित किया लेकिन नागार्जुन ने कहा कि इंदु, मेरी कविताएं तुम्हारे पिताजी सुन नहीं पाएंगे. इंदिराजी ने कहा कि आप आइए, वे सुनेंगे. उस कवि सम्मेलन में बाबा नागार्जुन ने नेहरूजी की कठोर आलोचना वाली कविता पढ़ी और कमाल की बात है कि नेहरूजी ने चुपचाप वो कविता सुनी भी. दरअसल वह कविता सत्ता के खिलाफ जन आक्रोश की अभिव्यक्ति थी. जन आक्रोश की अभिव्यक्ति तो कोई कवि, शायर, लेखक ही करेगा न! इस तरह की आलोचना के स्वर को मीडिया ही सामने रखेगा न!
मुझे एक घटना याद आ रही है. लोकमत टाइम्स का उद्घाटन करने ए. आर. अंतुले औरंगाबाद (अब छत्रपति संभाजीनगर) आए थे. उसी दिन लोकमत ने अंतुले पर व्यंग्य कार्टून प्रकाशित किया था. अंतुले पहले नाराज हुए लेकिन फिर शांत भी हो गए. उस समय अंतुले के मंत्रिमंडल में मेरे बाबूजी श्री जवाहरलाल दर्डा उद्योग मंत्री थे. इससे पहले इमरजेंसी के खिलाफ लोकमत ने जब खबरें लिखीं तो कुछ लोगों ने इंदिराजी से शिकायत की. इंदिराजी ने मेरे बाबूजी से पूछा कि लोकमत ये क्या कर रहा है. बाबूजी ने बड़ी शालीनता के साथ ये जवाब दिया कि लोकमत अखबार की भूमिका निभा रहा है.
मेरी स्पष्ट राय है कि किसी भी सूरत में आलोचना का हर स्वर शालीन होना चाहिए. एक-दूसरे के प्रति कोई वैरभाव नहीं होना चाहिए. और हां, इस बात का भी ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब देश के खिलाफ बोलना कभी नहीं हो सकता. मर्यादा की एक रेखा जरूर होनी चाहिए. एक बात यह भी कि सत्ता में चाहे कोई भी दल हो, उसे समझना होगा कि वह निर्धारित वक्त के लिए कस्टोडियन है. देश की असली सत्ता जनता के हाथ में है. आलोचना का अधिकार उसके पास है. लोकतंत्र की यही ताकत है. अपने लोकतंत्र पर नाज कीजिए...ऐसा कोई काम मत कीजिए जिससे हमारा लोकतंत्र आहत हो!