विजय दर्डा का ब्लॉग: तालिबानी खून के खिलाफ संगीत की धुन!

By विजय दर्डा | Published: March 20, 2023 07:32 AM2023-03-20T07:32:09+5:302023-03-20T07:32:09+5:30

संगीत की इबादत करने वाले 58 अफगानी किशोर और युवा अपने गुरु के नेतृत्व में बिल्कुल अलग तरीके से तालिबान की मुखालफत में जुटे हुए हैं. तालिबान ने जिस संगीत पर प्रतिबंध लगा रखा है, उसे ये पूरी दुनिया में पहुंचाना चाह रहे हैं. हौसला अफजाई के लिए इनके कंसर्ट में भारी संख्या में लोग आ रहे हैं.

Vijay Darda's Blog: Taliban against Music and story of Ahmad Naser Sarmast | विजय दर्डा का ब्लॉग: तालिबानी खून के खिलाफ संगीत की धुन!

विजय दर्डा का ब्लॉग: तालिबानी खून के खिलाफ संगीत की धुन!

जरा कल्पना कीजिए कि इंसान की जिंदगी में यदि संगीत नहीं होता तो कितनी नीरस होती जिंदगी. फिर कल्पना कीजिए कि जिनकी जिंदगी से संगीत छीन लिया गया है, वो किन हालात में रह रहे होंगे? बगैर संगीत के जिंदगी नरक ही तो बन गई होगी! मैं ऐसे ही एक मुल्क अफगानिस्तान की बात कर रहा हूं जहां तालिबान ने संगीत पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा रखा है. अफगानिस्तान का नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक तबाह कर दिया गया है. लेकिन एक शख्स ऐसा भी है जो इंस्टीट्यूट के 58 किशोरों और युवाओं को तालिबान के चंगुल से निकालने में कामयाब रहा है. इन कलाकारों ने अपने हुनर को तालिबान के खिलाफ हथियार बना लिया है.

इन कलाकारों को तालिबान से बचाकर नई जिंदगी देने और अपने देश के संगीत को महफूज रखने की कोशिश करने वाले इस बहादुर शख्स का नाम है अहमद सरमस्त. अफगानी संगीत को आकाश की अनंत ऊंचाई पर पहुंचाने के ख्वाब के साथ सरमस्त ने 2010 में एक संगीत विद्यालय ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ म्यूजिक’ को आकार दिया. तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि मुल्क पर तालिबान का फिर कब्जा हो जाएगा. जब अमेरिका भागा और तालिबान आया तो अहमद सरमस्त ने मुल्क छोड़ने का फैसला किया लेकिन अकेले नहीं, सोलह से बीस वर्ष के अपने 58 विद्यार्थियों के साथ उन्होंने मुल्क छोड़ दिया. वे पुर्तगाल पहुंचने में कामयाब रहे.  

सरमस्त और उनके युवा शिष्यों के पास अब म्यूजिक स्कूल तो नहीं है लेकिन ब्रागा म्यूजिक कंजर्वेटरी में उनकी गतिविधियां जारी हैं. सरमस्त ने लड़कियों के  जिस जोहरा ऑर्केस्ट्रा की स्थापना की थी, उसने फिर से जन्म ले लिया है. दूसरे ट्रूप तो हैं ही! इन कलाकारों ने दोहरी जिम्मेदारी उठाई है. एक तरफ अपने संगीत को संरक्षित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ तालिबान के खिलाफ धुन छेड़ दी है. यूरोप के देशों में उनके कार्यक्रम हुए हैं. रमीज जब अफगानी वाद्य यंत्र रबाब बजाते हैं और शौफिया धुन छिड़ती है तो यूरोप में अफगानी हवा बहने लगती है. संगीत के माध्यम से उनकी आवाज दुनिया के कोने-कोने में पहुंचने को बेताब है.

आप सोच रहे होंगे कि नामुराद तालिबान संगीत के पीछे क्यों पड़ा है? वाद्ययंत्र बजने और संगीत की स्वरलहरियां तैरने से उसे आपत्ति क्यों है? तो इसका जवाब यह है कि जब संगीत बंद हो जाता है तो सारा मुल्क मौन हो जाता है. संगीत में यह ताकत है कि वह अलख जगा दे! कहीं एक कहानी मैंने पढ़ी थी कि इतिहास के किसी दौर में दिल्ली की सल्तनत पर बैठे एक शासक को संगीत से बड़ी नफरत थी. 

एक दिन सुबह के समय कुछ लोग एक शवयात्रा लेकर जा रहे थे. शवयात्रा की आवाज सुनकर शासक ने पूछा कि कौन मर गया? सेवक ने कहा कि हुजूर संगीत की मौत हो गई है! शासक ने तिरस्कार के साथ कहा कि जाओ जाकर उसे इतना नीचे दफना दो कि फिर कभी ऊपर न आ पाए! उस शासक को संगीत की ताकत का अंदाजा था इसलिए वह संगीत को पसंद नहीं करता था. पहले राजा-महाराजा अपने दरबार में संगीत के महारथियों को जगह देते थे. दौलत लुटाते थे. दरअसल वे जानते थे कि ये कलाकार बगावत के बीज हो सकते हैं इसलिए इन्हें अपने दरबार में उलझाकर रखो!

इतिहास इस बात का गवाह है कि संगीत ने जनजागरण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका हमेशा निभाई. वंदे मातरम् का जयघोष इसका उदाहरण रहा है. बंकिमचंद्र ने 1882 में वंदे मातरम् लिखा. 1885 में कांग्रेस बनी और अगले ही साल कलकत्ता (अब कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में हमेंद्र बाबू ने वंदे मातरम् गाया. और फिर 1896 में कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे छंदबद्ध देश राग में गाया. 

1905 में कांग्रेस ने वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकारा. कवि सुब्रमण्यम भारती ने इसे तमिल में गाया तो पंतलु ने तेलुगु में गाया. यह आजादी के आंदोलन का गीत बन गया. घबराए गोरों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया लेकिन यह गीत तो जन-जन की जुबान पर चढ़ चुका था!

आजादी के आंदोलन में ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ की भी धूम थी.  महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने यह अमर रचना तब लिखी जब वे जेल में बंद थे. बसंत पंचमी को माध्यम बनाकर उन्होंने लिखा...

मेरा रंग दे बसंती चोला....
इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला/यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला.
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह टोला/किस मस्ती से पहन के निकला यह बासंती चोला.

जेल में बंद महान क्रांतिकारी भगत सिंह ने यह गीत सुना तो उन्होंने कुछ पंक्तियां और जोड़ीं...

इसी रंग में बिस्मिल जी ने ‘वंदे-मातरम्’ बोला/ यही रंग अशफाक को भाया उनका दिल भी डोला.
इसी रंग को हम मस्तों ने, दूर फिरंगी को करने को लहू में अपने घोला/...मेरा रंग दे बसंती चोला...

ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं कि गीत-संगीत ने अलख जगाने का काम किया है. संगीत में ताकत है कि वह जज्बात को छेड़ दे. रगों में वीरता का रस भर दे. हमारे तिरंगे की शान में जब धुन छेड़ी जाती है तो हमारा रोम-रोम आत्मसम्मान से भर जाता है. दुनिया की सारी भाषाओं से परे संगीत की अपनी एक भाषा है जिसे रोक पाने की ताकत किसी सरहद में नहीं है. इसीलिए ‘नाटू-नाटू...’ गीत की झोली में ऑस्कर का तोहफा आता है. 

संगीत सुख-दुख की अभिव्यक्ति का माध्यम है. संगीत हम सबकी आत्मा है इसलिए अजर और अमर है. संगीत मानवता है और मानवता में संगीत बसता है. तालिबान को समझना होगा कि संगीत की आवाज को दबाया नहीं जा सकता. राम धुन और कृष्ण की बांसुरी की धुन क्या कोई रोक पाया है? संगीत से मनुष्य नफरत कैसे कर सकता है?

संगीत की ताकत पर मुझे पूरा भरोसा है इसलिए लोकमत परिवार संगीत को समृद्ध करने की अपनी जिम्मेदारी के तहत हर वर्ष संगीत जगत की हस्तियों को सम्मानित करने के साथ ही दो नवोदित कलाकारों को सुर ज्योत्सना अवार्ड प्रदान करता है. श्रेष्ठ संगीत से ही श्रेष्ठ जीवनशैली का रास्ता तय होता है. संगीत है तो जिंदगी मुखर है. रहमत कर परवरदिगार... अफगानिस्तान की भी जिंदगी जल्दी मुखर हो!

Web Title: Vijay Darda's Blog: Taliban against Music and story of Ahmad Naser Sarmast

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