विजय दर्डा का ब्लॉग: डरा सहमा इंसान कहीं खो न दे अपनी पहचान!

By विजय दर्डा | Published: June 15, 2020 08:38 AM2020-06-15T08:38:36+5:302020-06-15T08:38:36+5:30

इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि जब लोग खुद के स्तर पर खुश नहीं रहेंगे तो सामाजिक व्यवहार कैसे ठीक रहेगा! देखिए, ये महामारी तो आज न कल समाप्त हो जाएगी. मुद्दे की बात है कि हमारा व्यवहार नहीं बदलना चाहिए.

Vijay Darda's Blog: Don't be afraid to lose your identity! | विजय दर्डा का ब्लॉग: डरा सहमा इंसान कहीं खो न दे अपनी पहचान!

कोरोना महामारी के इस समय की तस्वीर (सांंकेतिक फोटो)

यूं तो कोई शिकायत नहीं मुझे मेरे आज से/मगर कभी-कभी बीता हुआ कल बहुत याद आता है..! आज हर कोई महामारी से पहले के दिनों को याद कर रहा है. ..कहीं भी बेफिक्री से घूमना, काम पर जाना, दोस्तों से मिलना, एक दूसरे को थपथपाना, गलबहियां डालना, गले लगा लेना, पासपड़ोस के बच्चों को दुलारना, उन्हें गोद में उठा लेना..! सब जैसे बीते जमाने की बात हो गई है.

बीते तो कुल जमा तीन महीने भी नहीं हैं लेकिन उन दिनों की याद बहुत आती है. मन बार-बार बस यही पूछता है कि उन दिनों को हम अपनी जिंदगी में कब लौटा पाएंगे?

मैं बहुत आशावादी हूं और उतना ही कर्मशील भी, इसलिए निराशा मुङो कभी नहीं घेरती लेकिन जो सच सामने है उसका विश्लेषण तो होना ही चाहिए. मैंने अपने पिछले कॉलम में लिखा था कि मानवीयता जिंदा रहेगी तो हम सब जिंदा रहेंगे. उसके ठीक बाद मध्यप्रदेश के शाजापुर में मरीज को बेड से बांध कर रखने की घटना ने विचलित कर दिया है.

उसका दोष केवल इतना था कि वह अस्पताल का भुगतान करने की स्थिति में नहीं था. इस मामले को लेकर पूर्व कानून मंत्री अश्वनी कुमार ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र भी लिखा. जब स्थिति ऐसी हो तो हमें सोचना होगा कि हमारा समाज किधर जा रहा है?

अब मैं महसूूस कर रहा कि आर्थिक संकट से भी बड़ा स्नेह का स्पर्श खो देने का खतरा पैदा हो गया है. हम यह देख रहे हैं कि भाई-भाई, भाई-बहन, माता-पिता, पति-पत्नी जैसे रिश्ते भी प्रभावित हो रहे हैं. जिनसे एक पल दूर होते ही लोग व्याकुल हो जाते थे, आज उसके पार्थिव शरीर को हाथ लगाने को भी तैयार नहीं हैं. जो मजदूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर वालों से मिलने गांव पहुंच रहा है उसे गांव-घर में प्रवेश से अपने ही लोग रोक रहे हैं. यहां तक कि जो साधु-संत भक्तों को देखते ही चरण स्पर्श के लिए अपने पैर आगे बढ़ा देते थे, वे प्रत्यक्ष आशीर्वाद देने से भी कन्नी काट रहे हैं.

अब तो नेट पर प्रवचन चल रहे हैं. महामारी ने आंतरिक रिश्तों को झकझोर दिया है. मुझे याद है जब मैं विद्यार्थी था और हमारे शिक्षक जब कंधे पर बड़े स्नेह से हाथ रख देते थे या पीठ थपथपा देते थे तब हम खुशियों से भर जाया करते थे. पूरा दिन अच्छा बन जाता था कि गुरुजी ने कंधे पर हाथ रख दिया! बहन जब भाई की सूनी कलाई पर राखी बांधती और मां अपने हाथों से निवाला देती, बड़ा भाई छोटे भाई के मुंह में इमली चखाता, कोई बच्चा पिता की पीठ पर झूला झूलता, कोई पति पत्नी के बालों में मोगरे का गजरा सजाता - क्या वे दिन लौट आएंगे?

मुझे याद है कोई दोस्त अचानक पीछे से आकर आंखें बंद कर देता था तो स्नेह की एक अलग ही डोर का एहसास होता था. बहुत बाद में मैंने स्पर्श विज्ञान के बारे में पढ़ा तो पता चला कि प्रकृति ने बड़े सोच-समझ के साथ स्पर्श का यह नायाब तोहफा हमें दिया है. वैज्ञानिकों ने इसे साबित भी किया है कि किसी के स्पर्श का हमारे मन और मस्तिष्क पर काफी गहरा प्रभाव पड़ता है. मैं पार्लियामेंट में था तब कई बार ऐसा हुआ कि प्रधानमंत्री ने कंधे पर हाथ रखा और पूछ लिया- ‘कैसे हो विजय?’ मैंने महसूस किया कि ऐसे स्पर्श बड़े प्रेरणादायी होते हैं. स्नेह, प्रेम और जज्बात के रसायन को सक्रिय करते हैं.  

विज्ञान कहता है कि हमारी त्वचा के ठीक नीचे दबाव को महसूस करने वाले ‘प्रेशर रिसेप्टर्स’ होते हैं. जब कोई हमें छूता है तो ये प्रेशर रिसेप्टर्स सीधे दिमाग को तरंग भेजते हैं. ये तरंगें छूने के अंदाज पर निर्भर करती हैं. यदि स्पर्श स्नेह और प्रेम से भरा है तो तनाव पैदा करने वाले हार्मोन में कमी आने लगती है. वैज्ञानिकों ने पाया है कि एक दूसरे का हाथ पकड़ने और आलिंगन करने से स्ट्रेस हॉर्मोन कॉर्टिसोल कम होता है और इसके साथ ही विश्वास पैदा करने वाले हार्मोन ऑक्सीटोसिन का लेवल बढ़ने लगता है.

अब जरा भारतीय संस्कृति के नजरिए से इस समस्या को देखते हैं.  विकसित सभ्यताओं ने गले मिलना भले ही छोड़ दिया हो और उनका सामाजिक स्पर्श केवल हाथ तक सिमट गया हो लेकिन हमारी संस्कृति में स्पर्श के विभिन्न आयाम आज भी हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हैं. हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी गले मिलते हैं. सखियां गलबहियां डालती हैं.

बच्चे एक-दूसरे के साथ झूलते भी हैं और झूमाझटकी भी करते हैं.  हमारे यहां तो चरण छूने की संस्कृति भी है. मनोविज्ञान कहता है कि जब हम किसी बड़े व्यक्ति के चरण छूते हैं तो उसके हृदय में प्रेम, आशीर्वाद, संवेदना और सहानुभूति के भाव पैदा होते हैं जिससे उसका आभामंडल ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है. हमारा आभामंडल उस ऊर्जा को ग्रहण कर लेता है. झुक कर प्रणाम करने से हमारे भीतर विनम्रता भी पैदा होती है.

विज्ञान और भारतीय संस्कृति का उदाहरण मैंने इसलिए दिया ताकि हम स्पर्श की महत्ता को बेहतर तरीके से समझ पाएं. जरा सोचिए कि आज हम ऐसी स्थिति में हैं जहां एक दूसरे का स्पर्श नहीं कर पा रहे हैं तो इसका कितना बुरा असर हमारे शरीर और मन पर पड़ रहा होगा! सीधे-सीधे कहें तो लॉकडाउन के दौरान मानव के चिड़चिड़े हो जाने के कारणों में एक यह भी बड़ा कारण है. स्ट्रेस हार्मोन बढ़ा हुआ है और प्रसन्नचित्त करने वाले हार्मोन में कमी आ चुकी है. यह सिलसिला लंबा चला तो निश्चय ही हमारी जीवन शैली बुरी तरह से प्रभावित होगी.

इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि जब लोग खुद के स्तर पर खुश नहीं रहेंगे तो सामाजिक व्यवहार कैसे ठीक रहेगा! देखिए, ये महामारी तो आज न कल समाप्त हो जाएगी. मुद्दे की बात है कि हमारा व्यवहार नहीं बदलना चाहिए.

संकट है तो निश्चय ही उससे हमें लड़ना है और नियम कायदे से ही लड़ना है लेकिन अपने भीतर के स्नेह और प्रेम को हर हाल में बचाए रखिए क्योंकि यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है. तो स्वस्थ रहिए, सानंद रहिए. सुनहरे दिन फिर आएंगे जरूर..!
 

Web Title: Vijay Darda's Blog: Don't be afraid to lose your identity!

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