विजय दर्डा का ब्लॉग: दुश्मनों के दोस्त बन जाने से बहुत कुछ बदल जाएगा

By विजय दर्डा | Published: August 23, 2020 04:57 PM2020-08-23T16:57:27+5:302020-08-23T16:57:27+5:30

यूएई और इजराइल के बीच समझौते के पीछे अमेरिका का बहुत बड़ा हाथ है. उसके कारण यह है कि ईरान के साथ अमेरिका की जगजाहिर दुश्मनी है.

Vijay Darda's blog: A lot will change if enemies become friends | विजय दर्डा का ब्लॉग: दुश्मनों के दोस्त बन जाने से बहुत कुछ बदल जाएगा

इजरायल के प्रधानमंत्री व यूएई के क्राउन प्रिंस (File Photo)

इजराइल और यूएई यानी संयुक्त अरब अमीरात ने पैदाइशी दुश्मनी को भुलाकर एक-दूसरे का हाथ थाम लिया है. इसे पैदाइशी दुश्मनी मैंने इसलिए कहा क्योंकि 1948 में इजराइल के गठन के बाद खाड़ी देशों की हमेशा यही चाहत रही है कि इजराइल का वजूद किसी तरह भी समाप्त हो जाए और फिलिस्तीन की पताका लहराए.

इसीलिए खाड़ी देशों ने इजराइल को एक देश के रूप में कभी मान्यता नहीं दी. तमाम विरोधों के बावजूद इजराइल फलता-फूलता रहा और आज ताकतवर और विकसित देश के रूप में पहचान बना चुका है.

इजराइल ने 1979 में इजिप्ट और 1994 में जॉर्डन के साथ किया शांति समझौता

इजराइल ने 1979 में इजिप्ट और 1994 में जॉर्डन के साथ शांति समझौता किया था और दोनों से इजराइल के अच्छे संबंध हैं लेकिन बाकी के अरब देशों के साथ उसकी तकरार चलती रहती है.

ऐसे में सवाल है कि अचानक ऐसा क्या हो गया कि यूएई और इजराइल में शांति समझौता हो गया? और दूसरा सवाल है कि क्या यह समझौता टिकाऊ होगा? तीसरा सवाल है कि व्यापक तौर पर इसका असर क्या होगा?

दरअसल इस समझौते के पीछे अमेरिका का बहुत बड़ा हाथ है. उसके भी दो कारण हैं. पहला तो यह कि ईरान के साथ अमेरिका की जगजाहिर दुश्मनी है. इधर अमेरिका को काउंटर करने के लिए ईरान पूरी तरह से चीन की गोद में जा बैठा है.

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कहा जा रहा है कि ईरान के साथ चीन का महागठबंधन हो चुका है लेकिन इसे पूरी तरह सार्वजनिक नहीं किया गया है. अमेरिका चाहता है कि कोई ईरान का तेल न खरीदे लेकिन चीन ने स्पष्ट कर दिया है कि वह तो तेल खरीदेगा. 

ईरान को काबू में रखना चाहता है अमेरिका 

ईरान को काबू में रखने के लिए अमेरिका चाहता है कि इजराइल उन देशों की मदद करे जिनकी ईरान से दुश्मनी है. इसमें यूएई और सऊदी अरब शामिल हैं. दूसरा कारण यह है कि कोरोना से भारी नुकसान के बाद अमेरिका के लिए विभिन्न देशों में अपने सैनिकों की व्यापक तैनाती संभव नहीं होगी. 

इसलिए वह चाहता है कि इजराइल उसकी मंशा के अनुरूप ईरान के खिलाफ शक्ति संतुलन कायम करने के अलावा पश्चिम एशिया में अमेरिका के प्रतिनिधि के रूप में भूमिका निभाए.

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यूएई के साथ समझौते के बाद यह चर्चा भी उठ रही है कि क्या सऊदी अरब के साथ भी इजराइल का समझौता हो जाएगा? निश्चित रूप से अमेरिका ऐसा चाह भी रहा है.

सऊदी अरब चाहता है कि इजराइल अपनी ‘वेस्ट बैंक' पर कब्जा करने की योजना समाप्त करे

जहां तक सऊदी अरब का सवाल है तो उसने यह जरूर कहा है कि इजराइल अपनी ‘वेस्ट बैंक पर कब्जा करने की योजना’ को समाप्त कर दे तभी शांति स्थापित हो सकती है.

यदि ऐसा होता है तो संभव है कि सऊदी अरब के साथ भी कोई समझौता हो जाए. वेस्ट बैंक के मसले पर ही यह भी निर्भर करेगा कि यूएई के साथ समझौता कितना टिकाऊ होगा. ‘वेस्ट बैंक’ एक छोटा सा इलाका है जहां बसे 30 लाख लोगों में से लगभग 25 लाख फिलिस्तीनी और करीब 5 लाख इजराइली हैं.

पिछले 20 सालों में इजराइली लोगों की जनसंख्या दोगुनी हो चुकी है. फिलिस्तीनी चाहते हैं कि उनके कब्जे वाले वेस्ट बैंक, पूर्वी यरूशलम और गाजा पट्टी को मिलाकर एक देश बने, जबकि इजराइल चाहता है कि यह पूरा इलाका उसका हो जाए.

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इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने योजना को स्थगित तो किया है लेकिन यह भी कहा है कि यह फाइल उनकी टेबल पर बनी रहेगी. हो सकता है कि यह फाइल ठंडे बस्ते में डाल दी जाए और सऊदी अरब शांति पर सहमत भी हो जाए क्योंकि ईरान से लड़ने के लिए उसे इजराइल का साथ चाहिए ही.

यूएई के साथ ही सऊदी अरब की नीतियों में आया है बदलाव-

यूएई के साथ ही सऊदी अरब की नीतियों में भी हाल के दिनों में भारी परिवर्तन देखने को मिल रहा है. दोनों की ही पाकिस्तान से दूरी बढ़ रही है क्योंकि पाकिस्तान पूरी तरह से चीन की गोद में जा बैठा है. 

चीन की ईरान से दोस्ती हो चुकी है. इस तरह से यूएई और सऊदी अरब के लिए पाकिस्तान भरोसेमंद नहीं रह गया है. इसके अलावा यमन की जंग में पाक सेना की मदद के बावजूद सऊदी अरब जीत हासिल नहीं कर पा रहा है. यदि इजराइल उसकी मदद में आ जाता है तो वह जीत की उम्मीद कर सकता है.
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इधर यूएई लीबिया की जंग में फंसा हुआ है. वहां भी इजराइल उसकी मदद कर सकता है. कहने का आशय यह है कि इन दोनों देशों को इजराइल की जरूरत है. इसी कारण यूएई ने समझौता कर लिया और अमेरिका पूरी कोशिश कर रहा है कि सऊदी अरब के साथ भी इजराइल का समझौता हो जाए. 

अब जरा भारतीय दृष्टिकोण से इस मसले को देखें. इजराइल और खाड़ी के देशों के बीच यदि शांति रहती है तो इसका सीधा फायदा भारत को मिलेगा. दोनों ही पक्षों से भारत के अच्छे रिश्ते हैं. भारत ज्यादातर तेल अरब देशों से ही खरीदता है.

यदि सऊदी अरब से पाकिस्तान की पूरी तरह से विदाई हो जाती है तो इससे भारत का प्रभाव और कद वहां तेजी से बढ़ेगा. इजराइल तो हमारा सहयोगी है ही. हां, भारत के खिलाफ ईरान को चीन भड़का सकता है लेकिन भारत के साथ ईरान के गहरे रिश्ते रहे हैं.

अमेरिका के दबाव के बावजूद भारत के ईरान से बेहतर संबंध-

अमेरिका के दबाव के बावजूद भारत ने ईरान से मजबूत संबंध बनाए रखा है. ईरान को भी भारत के सहयोग की जरूत है. महत्वपूर्ण चाबहार प्रोजेक्ट में दोनों की भागीदारी है. तेल पाइप लाइन की महत्वपूर्ण परियोजना में तो दोनों साथ हैं ही. इसलिए भारत के साथ ईरान कभी संबंध खराब नहीं करना चाहेगा.

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समग्र दृष्टि से देखें तो भारत फायदे में दिख रहा है लेकिन निश्चित तौर पर इसके लिए कूटनीतिक कौशल की जरूरत होगी. मुझे लगता है कि ये जो शांति समझौता हुआ है उसका प्रभाव पश्चिम एशिया पर तो पड़ेगा ही, यूरोप और अफ्रीका पर भी गहरा प्रभाव पड़ने वाला है क्योंकि समझौते का कारीगर अमेरिका है और विरोध में चतुर चीन खड़ा है जिसने अपने हाथ अफ्रीका तक फैला रखे हैं.

प्रभाव कैसा होगा इस बारे में तत्काल आकलन करना कठिन है. इंतजार कीजिए. प्रभाव का जल्दी ही पता चल जाएगा.

Web Title: Vijay Darda's blog: A lot will change if enemies become friends

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