विजय दर्डा का ब्लॉग: बहुत देर कर दी हुजूर आते-आते..!

By विजय दर्डा | Published: March 21, 2022 08:03 AM2022-03-21T08:03:19+5:302022-03-21T08:03:19+5:30

कश्मीरी पंडितों के दर्द को सामूहिक उत्तेजना से ज्यादा आज व्यवस्थागत मरहम की जरूरत है. फिल्म आने के बाद जो उत्तेजना पैदा हुई है, उसे ऊर्जा में तब्दील करके पॉजिटिव रास्ते पर ले जाना होगा.

Vijay Darda blog: The Kashmir Files, story of Kashmiri Pandit and justice must provided for them | विजय दर्डा का ब्लॉग: बहुत देर कर दी हुजूर आते-आते..!

कश्मीरी पंडितों के दर्द को आज व्यवस्थागत मरहम की जरूरत

फिल्म द कश्मीर फाइल्स की इन दिनों न केवल देश बल्कि पूरी दुनिया में चर्चा है. एक हफ्ते के भीतर फिल्म ने न केवल खूब पैसा कमाया बल्कि भूचाल सा ला दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा कि लोग यह फिल्म जरूर देखें. फिल्म कश्मीर में हिंदुओं के कत्लेआम और विस्थापन पर आधारित है. फिल्म दिल दहलाती है तो खून भी खौलाती है. जो मिलता है बस कश्मीर फाइल्स की ही चर्चा करता है. 

सब पूछते हैं कि आखिर आतंकवादियों ने गिरिजा टिक्कू के साथ रेप करके उन्हें आरा मशीन से दो टुकड़ों में क्यों काट दिया? जिस पड़ोसी पर अथाह विश्वास था उसने क्यों बताया कि कश्मीरी पंडित जान बचाने के लिए अनाज के ड्रम में छिपा है? पंडित के खून से सने गेहूं को पत्नी को खिलाने का मंजर कितना खौफनाक रहा होगा! भीषण उत्तेजना को महसूस कर रहा हूं और भविष्य को लेकर भयभीत हो रहा हूं..!

पाक पर विश्वास करने वाले दरिंदों ने कश्मीरी पंडितों के खून से झेलम और चिनाब नदी के पानी को रंगने का जो नापाक काम किया, उन्हें इतिहास कभी माफ नहीं करेगा. दोस्ती और भाईचारे का खून हुआ. विश्वास और अपनापन वहशीपन का शिकार हो गया. राखी रक्तरंजित हो गई और मां शब्द की पाकीजगी को तबाह कर दिया. मानवता, विश्वास और प्रेम को कलंकित करने की सारी हदें पार कर दीं. इंसानियत, भाईचारे और रिश्तों को तार-तार कर दिया. पवित्र रिश्तों पर खून का टीका चढ़ गया. दरिंदों ने ये जो कुछ भी किया, उसका खामियाजा लोग आज तक भुगत रहे हैं. इसे खत्म करना होगा. विश्वास ही जीने का प्रबल सहारा होता है. इसलिए कश्मीर में विश्वास की फसल फिर से उगानी ही होगी.

मैं फिछले महीने ही कश्मीर की वादियों से होकर लौटा हूं और 21 फरवरी को इसी कॉलम में मैंने कश्मीर के दर्द को बयां भी किया था. आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति के कारण हालात सुधरते हुए लग रहे थे और मैंने महसूस किया कि कश्मीर को मोहब्बत के पैगाम की जरूरत है. तब द कश्मीर फाइल्स फिल्म की कहीं कोई चर्चा नहीं थी. ये फिल्म आई और कश्मीरी पंडितों का दर्द पूरे देश के लिए बड़ा मुद्दा बन गया. 

मुद्दा बनना भी चाहिए क्योंकि 1990 के दौर में करीब डेढ़ लाख लोग विस्थापित हुए थे. मैं हर फोरम पर आवाज उठाता रहा कि अपने ही वतन में कोई रिफ्यूजी बन जाए, इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? मैंने हमेशा कश्मीरी पंडितों की अपनी आबोहवा में वापसी की आवाज उठाई. कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के लिए मनमोहन सिंह की सरकार ने जम्मू में 5,242 मकान और बड़गाम जिले के शेखपोरा में 200 फ्लैट बनवाए तब मैंने कहा था कि यह पर्याप्त नहीं है. 

सबसे पहले तो ऐसे हालात पैदा किए जाएं कि किसी कश्मीरी पंडित पर हमला करने की हिम्मत कोई कर ही न पाए. जो जहां था वहां लौटे. पूरा देश उम्मीद कर रहा था कि हालात फिर से शायद ऐसे बन जाएं लेकिन ये फिल्म आ गई. अभी तो एक गाना याद आ रहा है..बहुत देर कर दी हुजूर आते आते..!

हमारी भारतीय संस्कृति में एक कहावत है कि जख्म की पपड़ी को खुरचना नहीं चाहिए अन्यथा घाव हरे हो जाते हैं. हां जख्म का इलाज जरूर करते रहना चाहिए. मुंबई दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक करने से मना कर दिया था ताकि माहौल न बिगड़े. आज यह सवाल लोग पूछ रहे हैं कि हिंदुओं का कत्लेआम करने वाले फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे को सजा क्यों नहीं हुई जबकि उसने कत्लेआम को अपने इंटरव्यू में स्वीकार किया था! 

सवाल वाजिब है. जवाब मिलना ही चाहिए. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जघन्य हत्याकांड के वक्त किसकी सरकार थी. जिस वक्त फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे तब भी हिंदू मारे जा रहे थे और जब जगमोहन राज्यपाल बन कर आए तब भी हत्याएं रुकीं नहीं. दोनों के दौर में ही हिंदू वहां से भागे!

1989 से लेकर 2003 तक कश्मीर में हिंदुओं पर हुए हमलों की लंबी फेहरिस्त सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड एंड होलिस्टिक स्टडीज ने तैयार की है. हमलों की वीभत्सता रोंगटे खड़े कर देती है और मन में यह सवाल पैदा होता है कि राज्य और केंद्र की सरकार क्या कर रही थी? मैंने यह सवाल उस दौर के कई नेताओं से पूछे हैं लेकिन अपनी विफलता स्वीकार करने का साहस उनमें नहीं है. इस सवाल पर भी सभी मौन हैं कि क्या सरकार आतंकवादियों पर कार्रवाई से हिचक रही थी कि यह मुसलमानों पर अत्याचार का मुद्दा न बन जाए? यदि किसी ने ऐसा सोचा होगा तो उसने बड़ी भूल की. 

हर मुसलमान के लिए भारत उतना ही प्रिय है जितना कि किसी हिंदू के लिए. आतंकवादी किसी मजहब का नाम भले ही ले लेकिन उसका कोई मजहब नहीं होता. कश्मीर में जब आतंकवाद जन्म ले रहा था तभी उसे नेस्तनाबूद कर देना था और पाकिस्तान को क्रूर भाषा में समझा देना था कि जरूरत पड़ी तो तुम्हें उसी तरह तबाह करेंगे जैसे इंदिरा गांधी ने किया था..!  

मौजूदा दौर में मैं कहना चाहूंगा कि कश्मीर फाइल्स फिल्म आने के बाद जो उत्तेजना पैदा हुई है, उसे ऊर्जा में तब्दील करके पॉजिटिव रास्ते पर ले जाना होगा. उत्तेजना को आग नहीं, आंच में तब्दील करना होगा. कश्मीरी पंडितों को न्याय मिलना ही चाहिए लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि इस प्रक्रिया में कश्मीर का आम मुसलमान आहत न हो, उनके  खिलाफ घृणा न फैलाई जाए. 

कश्मीरी मुसलमानों को खलनायक के रूप में चित्रित किए जाने से कश्मीरी पंडितों को कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि नफरत सिर्फ लोगों को बांटती है और मारती है. सभी का पक्ष सुनने और उनकी मदद करने की जरूरत है. निश्चित रूप से कश्मीरी मुसलमानों को भी आगे आना होगा और पंडितों को घाटी में फिर से बसाने का माहौल पैदा करना होगा. और हां, इस वक्त राजनीति का एक पक्ष जो खेल खेलना चाह रहा है, उससे भी हमें सतर्क रहना होगा.  

और अंत में...पिछले सप्ताह मैं मालदीव में था. जिन लोगों से मैं मिला उनमें दो दुबई के मूल निवासी और दो लोग दुबई में जन्मे और बसे पाकिस्तानी मूल के थे जिनके मां-बाप दुबई में काम करने आए थे और वहीं बस गए. उन्होंने बताया कि ज्यादा फीस के बावजूद पिता ने उन्हें दुबई के भारतीय स्कूल में पढ़ाया. वे कहते थे कि पाकिस्तानी स्कूल में पढ़ोगे तो नफरत सीखोगे. 

उन्होंने अपने मोबाइल में खान अब्दुल गफ्खार खां, पंडित नेहरू और फ्रीडम एट मिडनाइट जैसी किताब की तस्वीरें दिखाईं. हमारे साथ बैठे अरबी सज्जन ने बीच में टोका और कहा कि पाकिस्तान कोई देश है क्या? लोगों को गैस चेंबर में बंद करके रखा है. पाकिस्तानी मूल के दोनों लोग इशारों में हामी भर रहे थे..मैं बस उन्हें देख रहा था!

Web Title: Vijay Darda blog: The Kashmir Files, story of Kashmiri Pandit and justice must provided for them

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