विजय दर्डा का ब्लॉग: जब देश एक तो सभी चुनाव एक साथ क्यों नहीं?

By विजय दर्डा | Updated: November 29, 2020 17:39 IST2020-11-29T17:39:32+5:302020-11-29T17:39:36+5:30

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास लोकसभा में तो बहुमत है ही, अब राज्यसभा में भी बहुमत हो जाएगा तो ऐसा लगता है कि वे ‘एक देश एक चुनाव’ को मूर्त रूप देकर रहेंगे, यदि जरूरत पड़ी तो अध्यादेश भी लाया जा सकता है. एक देश एक चुनाव की व्यवस्था बहुत जरूरी भी है. 19 साल पहले विधि आयोग ने भी ‘एक देश एक चुनाव’ का सुझाव दिया था.

Vijay Darda blog over one nation on election: why not all elections together? | विजय दर्डा का ब्लॉग: जब देश एक तो सभी चुनाव एक साथ क्यों नहीं?

1967 तक लोकसभा के साथ ही हो रहे थे विधानसभाओं के भी चुनाव. राजनीति ने ये व्यवस्था बदल दी

प्रधानमंत्री ने कहा है कि ‘एक देश एक चुनाव’. यह सही बात है. यह क्यों नहीं होना चाहिए? हो सकता है कि यह राजनीति के हित में न हो लेकिन यह देश के हित में है. भारत का लोकतंत्र बहुत मजबूत है और इस देश के मतदाताओं ने समय-समय पर यह बता दिया है कि लोकतांत्रिक मू्ल्यों के बारे में भारत अमेरिका से भी ज्यादा सामथ्र्यवान है. हमारे यहां सत्तासीन पार्टी जब कभी भी हारी है तो सत्ता छोड़ने में उसने एक मिनट भी नहीं लगाया है.  आज हम देख रहे हैं कि अमेरिका में ट्रम्प किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं. यह कहा जाता है कि हिंदुस्तान के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं. नहीं होंगे अमेरिका की तरह पढ़े-लिखे! लेकिन हमारी अवाम निस्संदेह बहुत समझदार है. भारत के लोग जानते हैं कि कब क्या निर्णय लेना है. हमारा लोकतंत्र अत्यंत परिपक्व है और एक देश एक चुनाव को भी मूर्तरूप देने में सक्षम है. इसमें कोई संदेह नहीं कि इस देश का लोकतंत्र और तिरंगा हमेशा ऊंचा रहेगा.

यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो  संविधान को आकार देते वक्त हमारे राजनैतिक पूर्वजों ने यह सोचा भी नहीं होगा कि कभी ऐसा भी वक्त आएगा कि देश के किसी न किसी हिस्से में चुनावी गतिविधियां चल ही रही होंगी! अब देखिए न, बिहार विधानसभा और देश के कई हिस्सों में उपचुनाव से अभी निपटे ही हैं कि चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में होने वाले चुनावों को लेकर गतिविधियां शुरू हो गई हैं. 2021 में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में चुनाव होने हैं. उसके अगले साल यानी 2022 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होंगे.

1999 में विधि आयोग ने उठाई थी मांग 

लगातार कहीं न कहीं चुनाव के कारण आचार संहिता लगी रहती है. विकास कार्य ठप पड़े रहते हैं. व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है. जनता परेशान हो जाती है. सवाल लाजिमी है कि ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था क्यों नहीं की जा रही है? यह कोई नई अवधारणा तो है नहीं! 1951-52 में हुए पहले चुनाव से लेकर 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा तथा देश के विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे. इसमें व्यवधान  1968-69 में आया जब कुछ राज्यों की विधानसभाएं समय से पहले भंग कर दी गईं. इसके बाद 1972 में होने वाला लोकसभा चुनाव एक साल पहले 1971 में ही हो गया. इस तरह जो स्थिति गड़बड़ाई तो फिर गड़बड़ाती चली गई.

वर्ष 1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए. इसके बाद 2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने भी  चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2019 में इसके लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाई लेकिन कोई सहमति नहीं बन पाई. कांग्रेस ने यह कह कर प्रस्ताव को टाल दिया कि वह क्षेत्रीय दलों और अपने सहयोगी दलों के साथ बातचीत के बाद ही अपनी राय जाहिर करेगी. तब से यह मामला लटका पड़ा है. मैं जानता हूं कि हर पक्ष इस बात का ध्यान रखता है कि वह जब सत्ता में हो तो उसकी पार्टी को लाभ कैसे पहुंचे. इसीलिए विपक्षी दल शंका कर रहे हैं मगर यह गौण है क्योंकि एक साथ चुनाव लोकहित में है.

राजनीतिक दल एक साथ बैठकर करे विचार

चलिए, अब जरा चुनावी खर्च पर नजर डाल लेते हैं. 1951-52 के पहले चुनाव में करीब 11 करोड़ रुपए खर्च हुए थे. पिछले लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा करीब 60 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गया. इसके अलावा काले धन का आंकड़ा बिल्कुल अलग है. वह इससे अधिक है फिर भी उसके बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है. इसका कारण यह है कि चुनाव लड़ने में करोड़ों खर्च होते हैं जबकि खर्च सीमा अत्यंत कम है. इसे वास्तविक बनाना चाहिए. जरा सोचिए कि विभिन्न विधानसभाओं के चुनाव में कितने खर्च होते होंगे?

इसीलिए न केवल लोकसभा और विधानसभा बल्कि महानगरपालिका, नगरपालिका, जिला परिषद, जिला पंचायत और यहां तक कि ग्राम पंचायत के भी चुनाव एक साथ होने चाहिए. हमारे चुनाव आयोग ने ब्यूरोक्रेसी, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के अमले को साथ लेकर काम करने की क्षमता साबित की है. यह दायित्व भी आयोग पूरा करेगा. हमारी तकनीकी तरक्की भी ऐसी है कि एक दिन में चुनाव का रिजल्ट आ जाता है. एक साथ चुनाव को लेकर कुछ लोगों का कहना है कि इससे लोकतंत्र आहत होगा. वे तर्क देते हैं कि यदि बीच में कोई विधानसभा भंग हो गई तो? यदि चुनाव कराने की जरूरत पड़ गई तो? ऐसे और भी कई सारे सवाल उछाले जाते हैं लेकिन मेरी राय है कि राजनीतिक दल एक साथ बैठें और इस गंभीर मसले पर गहन विचार-विमर्श करें तो हर सवाल का जवाब ढूंढ़ा जा सकता है.

'एक देश एक चुनाव’ केवल PM नरेंद्र मोदी की कल्पना नहीं

कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ऐसी व्यवस्था से मतदाता प्रभावित हो सकता है और केंद्र तथा राज्य में एक ही पार्टी को वोट कर सकता है. मैं ऐसा नहीं मानता. ओडिशा का उदाहरण हमारे सामने है जहां केंद्र में जनता किसी और पार्टी को वोट देती है तो राज्य में किसी और को. मैं महाराष्ट्र के औरंगाबाद की ही बात बताता हूं. एक बार कांग्रेस के बड़े कद के नेता अब्दुल रहमान अंतुले लोकसभा तथा राजेंद्र दर्डा विधानसभा का चुनाव लड़े. अंतुले हार गए लेकिन दर्डा जीत गए. इसलिए मैं कहता हूं कि मतदाता पर किसी भी तरह का अविश्वास मत कीजिए! ‘एक देश एक चुनाव’ केवल नरेंद्र मोदी की कल्पना नहीं है. यह इस देश के आम मतदाता के मन की बात भी है. सभी राजनीतिक दलों को दलीय सोच से ऊपर उठना चाहिए और दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतंत्र को नई दिशा देनी चाहिए. वक्त की यही मांग भी है और जरूरत भी..!  

और हां, एक बात मैं चुनाव आयोग से कहना चाहता हूं कि हमारे अर्धसैनिक बलों और सैन्य बलों के लाखों जवान मताधिकार के उपयोग से वंचित रह जाते हैं. यह तकनीक का जमाना है. कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि वे भी चुनाव में अपने मत का उपयोग कर सकें.

 

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