विजय दर्डा का ब्लॉग: रोजंदारी और प्रवासी मजदूरों के दर्द को समझिए

By विजय दर्डा | Published: April 6, 2020 05:55 AM2020-04-06T05:55:42+5:302020-04-06T05:55:42+5:30

लॉकडाउन का उद्देश्य कोरोना को रोकना है तो इसके हर पहलू पर ध्यान भी रखना था. सरकार ने बहुत कुछ किया लेकिन एक बड़ी चूक भी हो गई. सरकार को इस बात का ध्यान रखना था कि शहर बंद होंगे तो बड़ी संख्या में श्रमिक गांवों की ओर रुख करेंगे. इससे कोरोना वायरस के गांवों में भी पहुंच जाने का खतरा पैदा हो जाएगा. गांव भी इसके शिकार हो जाएंगे. इसलिए शुरू में ही सरकार को यह घोषणा कर देनी थी कि कोई मजदूर बाहर नहीं जाएगा. सबके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था तत्काल करनी थी.  

Vijay Darda blog on Coronavirus: Understand the pain of daily wage and migrant laborers | विजय दर्डा का ब्लॉग: रोजंदारी और प्रवासी मजदूरों के दर्द को समझिए

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

कोरोना से जंग में दुनिया के दूसरे देशों की हालत देखें तो सुकून होता है कि भारत ने समय रहते कदम उठा लिया और लॉकडाउन का अस्त्र चला दिया. इसीलिए दुनिया की तुलना में हमारे यहां कोरोना के मरीजों की संख्या करीब-करीब नगण्य है. दुनिया का सबसे शक्तिशाली माना जाने वाला देश अमेरिका और यूरोप भी कोरोना से जंग में फेल हो चुके हैं.

इसी सप्ताहांत में अमेरिका में हर मिनट एक मौत हुई. अकेले न्यूयॉर्क शहर में हर तीसरे मिनट कोरोना ने एक व्यक्ति की जान ले ली. इटली और स्पेन की भी यही हालत है. दरअसल ये देश अपने आर्थिक तंत्र को नहीं रोकना चाहते थे इसलिए शुरुआती दौर में लॉकडाउन नहीं किया जबकि भारत ने स्थिति की गंभीरता का अंदाजा होते ही लॉकडाउन कर दिया.

हमारे लिए अर्थतंत्र से ज्यादा इंसान की जिंदगी महत्वपूर्ण है. इस सोच में हमारी संस्कृति का अहम योगदान है.

भारत जैसे विशाल जनसंख्या और ज्यादा घनत्व वाले देश में यदि कोरोना अमेरिका या यूरोप जैसा फैल जाता तो हम उसे काबू नहीं कर पाते. इसलिए लॉकडाउन का निर्णय बिल्कुल सही रहा. सही वक्त पर यह कदम उठाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार का हमें शुक्रिया अदा करना चाहिए.

लॉकडाउन के बाद इस जंग में राज्यों के साथ समन्वय, मुख्यमंत्रियों से संपर्क साधने और गृह मंत्रलय के माध्यम से पूरे प्रशासन को चाक-चौबंद करने में प्रधानमंत्री ने निश्चय ही कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. सभी राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस जंग में पूरी क्षमता से शामिल रहे हैं. मैंने पहले भी लिखा है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं.  

लॉकडाउन का उद्देश्य कोरोना को रोकना है तो इसके हर पहलू पर ध्यान भी रखना था. सरकार ने बहुत कुछ किया लेकिन एक बड़ी चूक भी हो गई. सरकार को इस बात का ध्यान रखना था कि शहर बंद होंगे तो बड़ी संख्या में श्रमिक गांवों की ओर रुख करेंगे. इससे कोरोना वायरस के गांवों में भी पहुंच जाने का खतरा पैदा हो जाएगा. गांव भी इसके शिकार हो जाएंगे. इसलिए शुरू में ही सरकार को यह घोषणा कर देनी थी कि कोई मजदूर बाहर नहीं जाएगा. सबके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था तत्काल करनी थी.  

सरकार के पास सारे आंकड़े हैं. उसे पता है कि किस शहर में कितने रोजंदारी मजदूर हैं, कितने प्रवासी मजदूर हैं. अकेले महाराष्ट्र में श्रमिकों की संख्या करीब 40 लाख है. 2017-18 में सरकार का जो लेबर फोर्स सर्वे आया था, उसके अनुसार देश में कुल लेबर फोर्स 46 करोड़ 50 लाख है. इसमें 52 प्रतिशत सेल्फ एम्प्लायड हैं और 25 प्रतिशत रोजंदारी मजदूर हैं. 13 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और केवल 10 प्रतिशत के पास स्थायी रोजगार है.

2017 में बिहार में एक सर्वे हुआ था जिसमें यह सत्य उभर कर सामने आया कि वहां के करीब 50 लाख लोग मुंबई, दिल्ली, सूरत, कोलकाता और पंजाब के शहरों में काम कर रहे हैं. यूपी से भी लाखों लोग इन शहरों में काम करते हैं. निश्चय ही देश की इकोनॉमी में इनका बहुत बड़ा योगदान है.

तो शुरुआती घोषणा और खाने-पीने की व्यवस्था न हो पाने के कारण मजदूर गांवों की ओर निकल पड़े. कोई दो सौ किलोमीटर तो कोई हजार किलोमीटर की यात्र करके यूपी, बिहार और राजस्थान के अपने गांव पहुंच गया. जब मजदूर पैदल ही गांवों की ओर निकल पड़े तब तक बहुत देर हो चुकी थी. कुछ व्यवस्थाएं की गईं लेकिन क्या ये व्यवस्थाएं पर्याप्त हैं? रहने का ठिकाना और खाने की व्यवस्था के अलावा और भी जरूरतें होती हैं. मसलन महिला श्रमिकों के स्वास्थ्य से जुड़ी जरूरतों का क्या ध्यान रखा जा रहा है? इन सारी स्थितियों पर केंद्र और राज्य के अधिकारियों को विचार करना था लेकिन हकीकत यह है कि लॉकडाउन का निर्णय लेते वक्त श्रमिक कहीं नजर में नहीं थे.

मजदूरों के सामने समस्या यह थी कि वे कोरोना से तो बाद में मरते, भूख से पहले मर जाते! पानी-पूरी बेचने वाला या पावभाजी बेचने वाला कितने दिनों तक जमा पूंजी से अपना काम चला सकता है? चलिए वह तो कुछ काम चला भी लेगा लेकिन जरा उसके बारे में सोचिए जो वहां आपकी जूठी प्लेट धोता है. श्रमिकों में कुशल कारीगर तो कुछ पैसा कमा भी लेते हैं लेकिन जो अकुशल मजदूर है, उसके सामने तो हमेशा ही संकट बना रहता है. लॉकडाउन करते समय यदि  इस स्तर पर सोचा गया होता तो श्रमिक भी कोरोना को मात देने के लिए उस जगह डटे रहते जहां सरकार उन्हें रखती! कांग्रेस ने प्रवासी मजदूरों की जो समस्या उठाई है वह महत्वपूर्ण है लेकिन दिक्कत है कि कांग्रेस का पार्टी स्ट्रक्चर इतना कमजोर है कि उसकी बात सुनेगा कौन?

और हां, एक गलती निजामुद्दीन में आयोजित कार्यक्रम को लेकर भी हुई. जिस तरह से महाराष्ट्र सरकार ने वसई में होने वाले कार्यक्रम की अनुमति रद्द कर दी थी उसी तरह निजामुद्दीन में भी सख्ती करनी थी और कार्यक्रम नहीं होने देना था. बहरहाल, जो बीत गई सो बात गई! अब हम सभी का एक ही लक्ष्य है- कोरोना को पराजित करना!

Web Title: Vijay Darda blog on Coronavirus: Understand the pain of daily wage and migrant laborers

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