वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉगः अंग्रेजी के शिकंजे से छुटकारा जरूरी
By वेद प्रताप वैदिक | Published: September 21, 2021 01:58 PM2021-09-21T13:58:28+5:302021-09-21T14:05:08+5:30
यह शिकंजा क्या है? यह शिकंजा है- अंग्रेजी की गुलामी का! हमारे देश को आजाद हुए 74 साल हो गए लेकिन आज तक देश में एक भी कानून हिंदी या किसी भारतीय भाषा में नहीं बना।
भारत के प्रधान न्यायाधीश एन।वी। रमणा ने वह बात कह दी, जो कभी डॉ। राममनोहर लोहिया कहा करते थे। जो बात न्यायमूर्ति रमणा ने कही है, मेरी स्मृति में ऐसी बात आज तक भारत के किसी न्यायाधीश ने नहीं कही। रमणाजी ने एक स्मारक भाषण देते हुए कहा कि भारत की न्याय व्यवस्था को औपनिवेशिक और विदेशी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए।
यह शिकंजा क्या है? यह शिकंजा है- अंग्रेजी की गुलामी का! हमारे देश को आजाद हुए 74 साल हो गए लेकिन आज तक देश में एक भी कानून हिंदी या किसी भारतीय भाषा में नहीं बना। हमारी संसद हो या विधानसभाएं- सर्वत्न कानून अंग्रेजी में बनते हैं। अंग्रेजी में जो कानून बनते हैं, उन्हें हमारे सारे सांसद और विधायक ही नहीं समझ पाते तो आम जनता उन्हें कैसे समङोगी? हम यह मानकर चलते हैं कि हमारी संसद में बैठकर सांसद और मंत्नी कानून बनाते हैं लेकिन असलियत क्या है ? इन कानूनों के असली निर्माता तो नौकरशाह होते हैं, जो इन्हें लिखकर तैयार करते हैं। इन कानूनों को समझने और समझाने का काम हमारे वकील और जज करते हैं। अदालत में वादी और प्रतिवादी बगलें झांकते हैं और वकीलों और जजों के बीच अंग्रेजी में बातचीत चलती रहती है। किसी मुजरिम को फांसी हो जाती है और उसे पता ही नहीं चलता है कि वकीलों ने उसके पक्ष या विपक्ष में क्या तर्क दिए हैं और न्यायाधीश के फैसले का आधार क्या है।
इसी बात पर न्यायमूर्ति रमणा ने जोर दिया है। इस न्याय-प्रक्रिया में वादी और प्रतिवादी की समझ में कुछ नहीं आता और न्याय-प्रक्रि या में भी बड़ी देरी हो जाती है। कई मामले 20-20, 30-30 साल तक अदालतों में लटके रहते हैं। न्याय में अगर देरी हो तो अन्याय होने लगता है। अंग्रेजी इतनी ज्यादा हावी हो जाती है कि भारत के मामलों को तय करने के लिए वकील और जज लोग अमेरिका और इंग्लैंड के अदालती उदाहरण पेश करने लगते हैं। अंग्रेजी के शब्द-जाल में फंसकर ये मुकदमे इतने लंबे खिंच जाते हैं कि देश में इस समय लगभग चार करोड़ मुकदमे बरसों से अधर में लटके हुए हैं। इस व्यवस्था को आखिर कौन बदलेगा? यह काम वकीलों और जजों के बस का नहीं है। यह तो नेताओं को करना पड़ेगा। लेकिन हमारे नेताओं की हालत ऐसी नहीं दिखाई देती कि वे यह काम कर सकें। उनके पास न तो मौलिक दृष्टि है और न ही साहस कि वे गुलामी की इस व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन कर सकें। हां, यदि कुछ नौकरशाह चाहें तो उन्हें और देश को अंग्रेजी की इस गुलामी से वे जरूर मुक्त करवा सकते हैं।