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वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉगः किसानों के मुद्दों पर मंथन जरूरी

By वेद प्रताप वैदिक | Updated: December 1, 2021 10:30 IST

यदि इन कानूनों के जाते और आते वक्त जमकर बहस होती तो किसानों को ही नहीं, देश के आम लोगों को भी पता चलता कि भाजपा सरकार खेती के क्षेत्र में अपूर्व क्रांति लाना चाहती है।

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संसद के दोनों सदनों में कृषि-कानून उतनी ही जल्दी वापस ले लिए गए, जितनी जल्दी वे लाए गए थे। लाते वक्त भी उन पर आवश्यक विचार-विमर्श नहीं हुआ और जाते वक्त भी नहीं। ऐसा क्यों? ऐसा होना अपने आप में शक पैदा करता है। यह शक पैदा होता है कि इस कानून में कुछ न कुछ है, जिसे सरकार छिपाना चाहती है जबकि सरकार का दावा है कि ये कानून लाए ही इसलिए गए थे कि किसानों को संपन्न और सुखी बनाया जाए।

यदि इन कानूनों के जाते और आते वक्त जमकर बहस होती तो किसानों को ही नहीं, देश के आम लोगों को भी पता चलता कि भाजपा सरकार खेती के क्षेत्र में अपूर्व क्रांति लाना चाहती है। मान लिया कि अपने कानूनों से सरकार इतनी ज्यादा खुश थी कि उसने सोचा कि उन्हें तत्काल लागू किया जाए लेकिन अब यदि संसद में इसकी वापसी के वक्त लंबी बहस होती तो सरकार इसके फायदे विस्तार से गिना सकती थी और देश की जनता को वह यह संदेश भी देती कि वह अहंकारी बिल्कुल नहीं है। वह अपने अन्नदाताओं का तहे-दिल से सम्मान करती है। इसीलिए उसने इन्हें वापस कर लिया है। इस संसदीय बहस में उसे कई नए सुझाव भी मिलते लेकिन लगता है कि इन कानूनों की वापसी ने सरकार को बहुत डरा दिया है। उसका नैतिक बल पेंदे में बैठ गया है। उसे लगा कि यदि बहस हुई तो उसके विरोधी दल उसकी बखिया उधेड़ डालेंगे। उसका यह डर सही निकला। विरोधियों ने बहस की मांग के लिए जैसा नाटकीय हंगामा किया, उससे क्या प्रकट होता है? क्या यह नहीं कि विरोधी दल किसानों को फायदा पहुंचाने की बजाय खुद को किसानों का ज्यादा बड़ा हितैषी सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में हमारे पक्ष और विपक्ष, दोनों की भूमिका लोकतंत्र की दृष्टि से संतोषजनक नहीं रही।

ये तो हुई राजनीतिक दलों की बात लेकिन हमारे किसान आंदोलन का क्या हाल है? वह अपूर्व और ऐतिहासिक रहा, इसमें जरा भी शक नहीं है लेकिन यह ध्यान रहे कि यह आंदोलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े किसानों का आंदोलन था। सरकार को उन्हें तो संतुष्ट करना ही चाहिए लेकिन उनसे भी ज्यादा उसकी जिम्मेदारी उन 86 प्रतिशत किसानों के प्रति है, जो देश के 700 जिलों में अपनी रोजी-रोटी भी ठीक से नहीं प्राप्त कर पाते हैं। उपज के न्यूनतम सरकारी मूल्य के सवाल पर खुलकर विचार होना चाहिए। वह मुट्ठीभर बड़े किसानों के लिए न बने और वह सभी किसानों के लिए लाभप्रद रहे, यह जरूरी है। आज की स्थिति में किसान आंदोलन की बजाय किसान मंथन की ज्यादा जरूरत है।

टॅग्स :किसान आंदोलनFarmer AgitationFarmersKisan Morcha
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