विवाह से बाहर सम्बन्ध पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उठा सवाल, कानून बड़ा या नैतिकता?

By वेद प्रताप वैदिक | Published: September 28, 2018 07:35 PM2018-09-28T19:35:04+5:302018-09-28T19:35:04+5:30

अब हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने द्विपक्षीय सहमति से होने वाले शारीरिक संबंध की छूट दे दी है. इसे कानून और नीतिशास्त्नों में अभी तक अनैतिक कहा जाता रहा है.

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विवाह से बाहर सम्बन्ध पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उठा सवाल, कानून बड़ा या नैतिकता?

सर्वोच्च न्यायालय ने इतने महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक साथ फैसले दे दिए हैं कि उन सब पर एक साथ टिप्पणी कैसे की जाए? आधार, अनुसूचितों की पदोन्नति, मस्जिद और नमाज तथा विवाहेतर शारीरिक संबंधों की छूट आदि ऐसे गंभीर और उलङो हुए मामले हैं कि इन पर सर्वसम्मति होनी काफी मुश्किल है.

कुछ मामले ऐसे हैं, जिनके बारे में कोई कानून नहीं है लेकिन उनका पालन किसी भी कानून से ज्यादा होता है. इसीलिए सदियों से दार्शनिक लोग इस प्रश्न पर सिर खपाते रहे हैं कि कानून बड़ा है या नैतिकता? लोग कानून को ज्यादा मानते हैं या नैतिकता को?

कानून के उल्लंघन पर सजा तभी मिलती है, जबकि आप पकड़े जाएं और आपके विरुद्ध अपराध सिद्ध हो जाए लेकिन अनैतिक कर्म की सजा से वे ही डरते हैं, जो भगवान के न्याय में या कर्मफल में विश्वास करते हैं.

अब हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने द्विपक्षीय सहमति से होने वाले शारीरिक संबंध की छूट दे दी है. इसे कानून और नीतिशास्त्नों में अभी तक अनैतिक कहा जाता रहा है. अदालत का जोर सहमति शब्द पर है. सहमति यानी रजामंदी.

नागरिकों की निजता

क्या विवाह अपने आप में सतत और शाश्वत सहमति नहीं है? यदि पति-पत्नी इस रजामंदी को जब चाहें, तब भंग करके किसी के साथ भी सहवास करें तो परिवार नाम की संस्था तो जड़ से उखड़ जाएगी.  मोबाइल सिम, स्कूल, बैंक, परीक्षा आदि के लिए आधार की अनिवार्यता खत्म करके अदालत ने उसकी स्वीकार्यता बढ़ा दी है.

नागरिकों की निजता भी ‘आधार’ से भंग न हो, इस पर अदालत ने पूरा जोर दिया है. नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद का होना जरूरी है या नहीं, इस प्रश्न को अदालत ने अयोध्या-विवाद से अलग कर दिया है.

आश्चर्य है कि जिन मसलों पर संसद में खुली बहस के बाद कानून बनाया जाना चाहिए और जिन पर आम जनता की राय को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए, उन मसलों पर अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है.

Web Title: ved pratap vaidik blog on supreme court judgement on ipc article 497

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