उमेश चतुर्वेदी का ब्लॉग: संवाद से छंट जाएंगे संदेह के बादल!
By उमेश चतुर्वेदी | Published: September 24, 2018 05:40 AM2018-09-24T05:40:37+5:302018-09-24T05:40:37+5:30
इस संवाद में संघ ने सभी आग्रहों और दुराग्रहों पर एक तरह से सफाई ही दी है। संघ पर ब्राह्मणवाद के वर्चस्व का आरोप भी ऐसा ही है। लेकिन संघ प्रमुख ने कहा कि लोगों को पता नहीं है कि संभाग स्तर तक संघ के प्रमुख संगठकों में विभिन्न जातियों के लोग आगे आ गए हैं।
संवाद और शास्त्रार्थ की परंपरा वाले देश में हाल के दिनों में सार्वजनिक चर्चाओं की गुंजाइश लगातार कम हुई है। इसे कभी असहिष्णुता तो तभी दूसरे विचार की उपेक्षा के तौर पर देखा गया है। देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक पद प्रधानमंत्री तक से शिकायत है कि संवाद नहीं रहा।
ऐसे माहौल में अगर देश का पुराना संगठन और उसका प्रमुख खुद संवाद के लिए आगे आता है तो उसका भी स्वागत होना चाहिए। ‘भविष्य का भारत’ विषय पर केंद्रित व्याख्यान और संवाद के बहाने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने खुद पर उठने वाले सामाजिक और राजनीतिक सवालों के साथ ही आक्षेपित आरोपों पर जवाब देने के लिए प्रमुख राजनीतिक दलों की हस्तियों को आमंत्रित तो किया, लेकिन किसी राजनीतिक दल ने इसमें हिस्सेदारी नहीं की।
1965 में भारतीय जनसंघ के नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने तीन दिनों का पुणे में व्याख्यान दिया था। उस व्याख्यान ने भारतीय राजनीति में अंत्योदय यानी आखिरी आदमी के विकास का जो स्वदेशी सोच आधारित विचार पेश किया, उसे भारतीय राजनीति में एकात्म मानववाद के रूप में प्रतिष्ठा मिली है। वह विचार तब भारतीय राजनीति का प्रस्थान बिंदु बना था, जिसके आधार पर गैर कांग्रेसवाद का विचार मजबूती से सामने आया।
इसके साथ ही देश में नई राजनीतिक परिपाटी की सोच बढ़ी। संघ प्रमुख के तीन दिनों के संवाद को भी उसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
संघ को लेकर भारतीय समाज में कई तरह के आग्रह और दुराग्रह हैं।
इस संवाद में संघ ने सभी आग्रहों और दुराग्रहों पर एक तरह से सफाई ही दी है। संघ पर ब्राह्मणवाद के वर्चस्व का आरोप भी ऐसा ही है। लेकिन संघ प्रमुख ने कहा कि लोगों को पता नहीं है कि संभाग स्तर तक संघ के प्रमुख संगठकों में विभिन्न जातियों के लोग आगे आ गए हैं।
अतीत में चूंकि सिर्फ ब्राह्मण ही उसके विचार से प्रभावित थे इसलिए संघ के केंद्रीय नेतृत्व में उनका बोलबाला दिखता था, लेकिन अब सोच बदली है। दूसरी जातियों के भी लोग आ रहे हैं, इसलिए आने वाले दिनों में केंद्रीय स्तर पर भी दूसरी जातियों के लोग दिखेंगे।
अपने पहले दिन के संबोधन में संघ प्रमुख ने भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक और नवमानववाद के प्रवर्तक मानवेंद्र नाथ राय को जिस तरह उद्धृत किया, उसकी ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। राय का विचार रहा है कि कितनी भी क्रांति क्यों न हों, अगर आखिरी व्यक्ति के जीवन में बदलाव नहीं आता तो उस क्रांति का कोई मतलब नहीं है।
भागवत ने स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका की भी खुलकर सराहना की। जाहिर है कि इन कदमों से उन्होंने एक तरह से अपनी वैचारिकी को सुदृढ़ करने की कोशिश की, बल्कि उन्होंने साफ संदेश दिया कि विरोधियों के भी अच्छे कदमों और विचारों से उन्हें परहेज नहीं है।
संघ के इस संवाद से तत्काल बदलाव तो नहीं होगा। राजनीति चूंकि तात्कालिक बदलाव में ही अपनी नियति और कामयाबी देखती है। लेकिन राजनीतिक विमर्श लंबे वक्त की मांग करता है। इस संवाद का दूरगामी असर होगा।