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वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: कृषि-कानूनों पर शुभ शीर्षासन

By वेद प्रताप वैदिक | Updated: November 20, 2021 09:24 IST

यदि कृषि-कानूनों के बारे में यह सावधानी बरती जाती तो सरकार को आज यह शीर्षासन नहीं करना पड़ता लेकिन यह शीर्षासन इस सरकार के भविष्य के लिए बहुत शुभ और सार्थक सिद्ध हो सकता है।

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज तीनों कृषि-कानूनों को वापस लेने की स्पष्ट घोषणा कर दी। इस घोषणा का हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि यह घोषणा अभी नहीं होती तो उत्तर भारत की ठंड में पता नहीं कितने किसानों का और बलिदान होता। मेरी स्मृति में शायद भारत में आजादी के बाद कोई ऐसा आंदोलन नहीं हुआ, जिसमें इतने लोगों की जानें गई हों।  

लाखों लोगों को तरह-तरह की अन्य असुविधाएं भी भोगनी पड़ीं। लाल किले के तिरंगे का भी अपमान हुआ। लोग पूछ रहे हैं कि इतना बड़ा फैसला सरकार ने क्या किसी के प्रति प्रेमभाव से लिया है? इसका सीधा उत्तर तो यही होगा कि सरकार ने यह फैसला न तो किसानों के प्रति प्रेमभाव से लिया है और न ही उनकी दृढ़ता से घबराकर लिया है। यह फैसला हुआ है अपनी सत्ता के डर के मारे।

अगले कुछ ही महीनों में लगभग आधा दर्जन राज्यों के चुनाव होने वाले हैं। इनमें देश के बड़े और महत्वपूर्ण राज्य हैं। उनमें उल्टी हवा बहने लगी है। यदि उसका असर बढ़ गया और उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा तथा कुछ अन्य राज्य हाथ से निकल गए तो दिल्ली की गद्दी को नीचे से खिसकते देर नहीं लगेगी। यानी अद्वैतवाद की भाषा का प्रयोग करूं तो सत्ता ही ब्रह्म है, बाकी जगत मिथ्या है।  

चाहे कृषि-कानून सत्ता-संकट के डर से ही वापस हो रहे हैं लेकिन इनकी वापसी यह बताती है कि सरकार झुकी है। किसानों का वोट-बैंक पक्ष में आए या न आए लेकिन इसका फायदा देश और मोदी को जरूर होगा। मोदी के भाषण में अपूर्व विनम्रता, मार्मिकता और विलक्षण शिष्टता थी। अपने भाषण में ज्यादा समय उन्होंने यह बताने में लगाया कि उनकी सरकार ने किसानों के फायदे के लिए अब तक क्या-क्या कदम उठाए। 

इसमें शक नहीं है कि पिछले 7 वर्षो में किसानों के फायदों के लिए जितने कदम इस सरकार ने उठाए हैं, पिछली किसी सरकार ने भी नहीं उठाए हैं लेकिन इस सरकार की जो कमियां अन्य कई बड़े फैसलों में दिखाई पड़ी हैं, वह ही इन कृषि कानूनों के बारे में भी दिखाई पड़ी है। जिस तरह के आनन-फानन फैसले भूमि-अधिग्रहण, नोटबंदी और कृषि कानूनों के बारे में लिए गए, वे क्या बताते हैं? 

वे यही बताते हैं कि हमारे देश में नौकरशाहों के इशारे पर नेता कदम उठाते हैं। वे न तो विशेषज्ञों से राय लेते हैं, न विपक्षियों को भाव देते हैं और न ही अपने मंत्रिमंडल और पार्टी-मंचों पर किसी मुद्दे पर खुलकर किसी बहस से लाभ उठाते हैं। यदि कृषि-कानूनों के बारे में यह सावधानी बरती जाती तो सरकार को आज यह शीर्षासन नहीं करना पड़ता लेकिन यह शीर्षासन इस सरकार के भविष्य के लिए बहुत शुभ और सार्थक सिद्ध हो सकता है।

टॅग्स :किसान आंदोलनFarmer Agitation
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