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भाषा के नाम पर विवादों से बचने की जरूरत

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: April 14, 2025 07:15 IST

साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान आदि क्षेत्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई भाषा कितनी समृद्ध है, यही तथ्य उसके विकास का असली पैमाना है.

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यह बात सहज समझ में आने वाली है कि जो जहां रह रहा है, उसे क्षेत्र-विशेष की भाषा तो आनी ही चाहिए, लेकिन यहीं इस बात की समझ की भी अपेक्षा की जाती है कि हमारा संविधान रोजी-रोटी के लिए कहीं भी आने-जाने, बसने का अधिकार देश के हर नागरिक को देता है. आसेतु-हिमालय सारा भारत देश के सब नागरिकों का है, सबको कहीं भी जाकर बसने का अधिकार है. ऐसे में, क्षेत्र-विशेष की भाषा बोलने की शर्त हर नागरिक के लिए लागू करना शायद उतना व्यावहारिक नहीं होगा, जितना समझा जा रहा है. इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कोई भाषा न बोल पाने वाला उस भाषा के प्रति अवमानना का भाव रखता है.

यहीं इस बात को रेखांकित किया जाना जरूरी है कि अपनी भाषा के प्रति लगाव का भाव होना एक स्वाभाविक स्थिति है,  अपनी भाषा के प्रति प्यार और सम्मान का भाव होना ही चाहिए, पर इसका यह अर्थ नहीं है कि हम देश की अन्य भाषाओं के प्रति अवमानना का भाव रखें. देश की सारी भाषाएं हमारी भाषाएं हैं और हमें सब पर गर्व होना चाहिए.

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभिन्न भाषाओं से समृद्ध हमारे भारत में भाषा के नाम पर विवाद खड़े किए जाते हैं. इस मुद्दे पर कई बार विभिन्न राज्यों में हिंसक घटनाएं भी हो चुकी हैं. उस स्थिति का मुख्य कारण भाषा को राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति का माध्यम बनाना है. यह एक हकीकत है कि भाषा की इस राजनीति ने देश के अलग-अलग हिस्सों में अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं.

हमारे देश में राज्यों का गठन भाषाई आधार पर हुआ है. ये भाषाएं हमारी कमजोरी नहीं, ताकत हैं. इसलिए जरूरी है कि हमारी हर भाषा निरंतर समृद्धि की दिशा में बढ़े, बढ़ती रहे. भाषा के विकास का मतलब यही नहीं है कि उसका विस्तार कितना हो गया है अथवा उस भाषा के बोलने वालों की संख्या कितनी बढ़ गई है. भाषा के विकास का अर्थ यह भी है कि भाषा की क्षमता कितनी बढ़ी है अर्थात नए-नए विषयों को समझने-समझाने में भाषा कितनी सक्षम हो गई है या होती जा रही है. साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान आदि क्षेत्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई भाषा कितनी समृद्ध है, यही तथ्य उसके विकास का असली पैमाना है.

आज तो स्थिति यह है कि शहर से लेकर गांव-खेड़े तक में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए हैं और उनके साथ यह जोड़ा जाना भी जरूरी हो गया है कि यह ‘इंटरनेशनल स्कूल’ है! इस इंटरनेशनल का क्या मतलब है मैं नहीं जानता, पर इतना अवश्य जानता हूं कि आजादी से पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे, अब अंग्रेजी के गुलाम हो गए हैं. यह बीमार मानसिकता है. इससे उबरना होगा.

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