ब्लॉग: पर्यावरण की तबाही का दुष्चक्र और इससे बाहर निकलने की चुनौती
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 15, 2024 10:58 AM2024-06-15T10:58:08+5:302024-06-15T10:59:40+5:30
गेहूं-चावल कोई पेट्रोल-डीजल तो है नहीं कि धरती से दोहन करके उसकी कमी पूरी कर ली जाएगी!
हेमधर शर्मा
कुछ साल पहले जब कोरोना महामारी के कारण लोग शहरों से गांवों की ओर भाग रहे थे तो गांवों ने भी उन्हें निराश नहीं किया था। खेतों ने उन्हें कम से कम भूखों तो नहीं मरने दिया था। गांधीजी का कहना था कि धरती मां पेट तो अपने सभी बच्चों का भर सकती है लेकिन लालच किसी एक का भी पूरा नहीं कर सकती।
विडम्बना यह है कि पेट भरते ही हम मनुष्यों का लालच भी बढ़ने लगता है। इस लालच के ही चलते दुनिया को युद्धों की आग में झोंका जा रहा है।
परंतु पर्यावरण को नुकसान हम सिर्फ युद्धों के जरिये ही नहीं पहुंचा रहे. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 13 वर्षों में भारत में एसी इस्तेमाल करने वालों की संख्या तीन गुना बढ़ गई है और अब देश में हर सौ में से 24 परिवारों के पास एसी है एसी अपने आप में तो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती ही है, खबर यह भी है कि कूलिंग प्रोडक्ट्स में बिजली की खपत पिछले चार साल में 21 प्रतिशत बढ़ गई है और सब जानते हैं कि अपने देश में बिजली उत्पादन का प्रमुख स्रोत जीवाश्म ईंधन ही ।
पर संकट सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहने वाला है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक भारतीय बाजार में घरेलू एसी की हिस्सेदारी नौ गुना बढ़ने वाली है और इससे कूलिंग के लिए बिजली की मांग भी नौ गुना बढ़ेगी। दरअसल यह एक दुष्चक्र है। जैसे-जैसे अधिक कूलिंग उपकरण लगाए जाते हैं, वैसे-वैसे वातावरण में गर्मी बढ़ती जाती है और जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, कूलिंग उपकरणों की मांग भी अधिकाधिक बढ़ती जाती है।
इस सिलसिले का असर किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहता। जो कोरोना महामारी हम मनुष्यों के लिए तबाही लेकर आई थी, वह प्रकृति के लिए ऐसा वरदान बनी कि पिछले कई वर्षों से देश में धन-धान्य के भंडार भरे हुए थे। इसी का प्रताप था कि सरकार लगभग अस्सी करोड़ लोगों का मुफ्त में पेट भरने में सक्षम थी।
लेकिन अब खबर है कि जलवायु परिवर्तन के कारण गेहूं की पैदावार प्रति एकड़ पांच क्विंटल तक घट गई है और देश में गेहूं भंडार पिछले 16 साल के निम्नतम स्तर पर पहुंच गया है। यहां तक कि ज्यादा दाम देने के बाद भी सरकारी खरीद लगभग 29 प्रतिशत कम हुई है।
जाहिर है कि किसानों के पास जब अतिरिक्त गेहूं है ही नहीं तो वे बेचेंगे कहां से! अब 80 करोड़ लोगों का मुफ्त में अगर पेट भरना है तो गेहूं का आयात करने के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन युद्धों से तबाह और ग्लोबल वार्मिंग की मार झेलती दुनिया कितने लोगों का पेट भरने में सक्षम है? गेहूं-चावल कोई पेट्रोल-डीजल तो है नहीं कि धरती से दोहन करके उसकी कमी पूरी कर ली जाएगी!
कोई नहीं जानता कि इस दुष्चक्र का अंत कहां जाकर होगा। हालांकि इस श्रृंखला की कड़ी बनने से हम इंकार करें तो संभव है कि दुष्चक्र के टूटने की शुरुआत हो। लेकिन क्या हम अपने एयरकंडीशंड रूम से बाहर निकल कर और युद्धोन्माद पैदा करने वाले मौत के सौदागरों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा बनकर तथा शांति के हिमायतियों का साथ देकर इस दुष्चक्र को तोड़ने को तैयार हैं?