लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुत पहले पड़ चुके थे बहुसंख्यकवाद के बीज
By अभय कुमार दुबे | Published: November 24, 2022 03:12 PM2022-11-24T15:12:35+5:302022-11-24T15:13:01+5:30
प्रतिष्ठित राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी का विचार था कि राजनीति को अनिवार्यत: चुनावी खेल में घटा देने की अवधारणा और प्रवृत्ति ने लोकतंत्र की अंतर्वस्तु को सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद में बदल दिया है। उनका कहना था कि राज्य और नागरिक समाज के बीच मध्यस्थता करने वाली मध्यवर्ती संस्थाओं और राजकीय संस्थाओं को दरकिनार करके जनता से सीधे अपील करने की राजनीतिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके ऐसा किया जाता है। कभी यह गरीबों के नाम पर किया जाता है, और कभी विकास के नाम पर।
प्रतिष्ठित राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी ने अस्सी के दशक के मध्य में ही हिंदू बहुसंख्यकवाद को बाहर से किए गए आरोपण की तरह न देख कर उदारतावादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की अंतर्वस्तु की तार्किक परिणति की तरह उसकी शिनाख्त कर ली थी। कोठारी ने राजनीतिकरण की प्रक्रिया, चुनाव जीतने के लिए वोटों की गोलबंदी करने के तरीकों और राजनीतिक लोकलुभावनवाद के उदय के सांप्रदायिक दुष्परिणामों को कहीं ज्यादा ठोस तरीके से रेखांकित करते हुए कहा था कि इस तरह के अंदेशे कहीं बाहर से नहीं आते, वरन स्वयं व्यवस्था के भीतर मौजूद रहते हैं।
कोठारी का विचार था कि राजनीति को अनिवार्यत: चुनावी खेल में घटा देने की अवधारणा और प्रवृत्ति ने लोकतंत्र की अंतर्वस्तु को सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद में बदल दिया है। उनका कहना था कि राज्य और नागरिक समाज के बीच मध्यस्थता करने वाली मध्यवर्ती संस्थाओं और राजकीय संस्थाओं को दरकिनार करके जनता से सीधे अपील करने की राजनीतिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके ऐसा किया जाता है। कभी यह गरीबों के नाम पर किया जाता है, और कभी विकास के नाम पर।
कोठारी के मुताबिक यह प्रक्रिया 1969 से ही चलती रही है, जब कांग्रेस के नेतृत्व में मुसलमान, अनुसूचित जातियां-जनजातियां, कुछ पिछड़ी जातियां और ब्राह्मणों का ध्रुवीकरण किया गया। साथ ही एक सर्वोच्च नेता पर जोर दिया गया। नतीजा यह निकला कि सभी तरह की राजनीतिक प्रक्रियाओं और संहिताओं का स्थान चुनावी विजय की लहरों ने ले लिया। पार्टियों को व्यापक बदलाव के यंत्र की तरह न देख कर सत्ता में बनाए रखने वाले औजार की तरह देखा जाने लगा। चुनाव अपने आप में लक्ष्य बनते चले गए। अल्पसंख्यकों की तुलना में बहुसंख्यकों की संख्यात्मक ताकत पर जोर दिया जाने लगा। यह काम केवल सांप्रदायिक शक्तियां ही नहीं कर रही थीं, बल्कि स्वयं को सेक्युलर कहने और मानने वाले भी यही करते नजर आए। परिणामस्वरूप सांप्रदायिकता सेक्युलर राजनीति की उपज बन गई और एक तरह से वह आदर्शों से रहित सेक्युलर राजनीति के रूप में उभर आई।
कोठारी ने बारीकी में जाते हुए दिखाया कि किस तरह संख्या के इस खेल के सांप्रदायिक परिणाम फौरन स्पष्ट नहीं हुए और संख्याओं को जाति और क्षेत्र के रूप में देखा जाता रहा। इस तरह एक नृवंशीय गणनशास्त्र ने जन्म लिया। यह गणनशास्त्र महानगरीय इलाकों में कुछ कम, देहाती क्षेत्र में अधिक और आदिवासी क्षेत्रों में सबसे ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। इस राजनीति ने उन क्षेत्रों को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया जिन पर आमतौर पर सांप्रदायिक विचारों का असर नहीं पड़ता था। जैसे मजदूर वर्ग, छात्र समुदाय और आम तौर पर युवा वर्ग।