ब्लॉग: आवारा कुत्तों का आतंक और ‘स्मार्ट सिटी’
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: October 27, 2023 01:49 PM2023-10-27T13:49:58+5:302023-10-27T13:51:54+5:30
कई गैरसरकारी संगठनों ने कुत्तों के लिए आश्रय गृह शुरू किए हैं और सामाजिक संगठनों ने ‘गौ-शालाएं’ स्थापित की हैं, लेकिन इसके बावजूद स्थिति इतनी गंभीर क्यों बनी हुई है?
आवारा कुत्तों के हमले में गुजरात के जाने-माने व्यवसायी पराग देसाई की चौंकाने वाली मौत स्पष्ट रूप से ‘नए भारत’ और उन तमाम खूबियों पर एक धब्बा है जो एक उभरती हुई शक्ति और दुनिया की एक बड़ी अर्थव्यवस्था से जुड़ी हैं।
यह केवल वाघ बकरी चाय ब्रांड के मालिक की असामयिक मृत्यु का मामला नहीं है, बल्कि इसमें गंभीर मुद्दा आवारा कुत्तों का है जो अधिकांश भारतीय शहरों और गांवों में अनियंत्रित गति से बढ़ रहे हैं।
देसाई की मृत्यु ने केवल उस गंभीर समस्या को पुनः उजागर भर किया है। दशकों से उपेक्षित समस्या जो अब एक विकराल रूप धारण कर चुकी है। युवा उद्योगपति ने हो सकता है थोड़ी लापरवाही बरती हो, लेकिन निश्चित रूप से इसके कारण अहमदाबाद जैसी स्मार्ट सिटी में उनका ऐसा अंत नहीं होना चाहिए था। सवाल यह है कि भारत की व्यापारिक और खेल राजधानी बनने के लिए मुंबई के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे अहमदाबाद से क्या हम एक सुरक्षित शहर होने की उम्मीद नहीं कर सकते?
सभी दिशाओं में ‘प्रगति’ कर रहे देश से न केवल सामाजिक विकास करने, रोजगार प्रदान करने या पर्यावरण को स्वच्छ रखने पर ध्यान देने की उम्मीद की जाती है, बल्कि उसे अपने नागरिकों को रोजमर्रा की जिंदगी में बुनियादी सुरक्षा की गारंटी भी देनी चाहिए- चाहे वह बलात्कारियों से हो, हत्यारों से हो, कुत्तों से या फिर बंदरों से यदि सरकारी एजेंसियां मनुष्यों की सुरक्षा के बारे में सतर्क और जिम्मेदार हों तो भयानक और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में होने वाली मौतें-चाहे वह मोरबी पुल ढहने से हो या वडोदरा में निजी कोचिंग संस्थान में आग लगने से-निश्चित रूप से रोकी जा सकती हैं।
बहरहाल, आवारा पशुओं की समस्या देशभर में व्याप्त है। जब कोई बाघ या तेंदुआ किसी ग्रामीण को मार डालता है तो हमेशा चीख-पुकार मचती है, लेकिन हम आसानी से भूल जाते हैं कि वे जंगली जानवर हैं जिनके अधिवास पर मनुष्य प्रजाति लगातार कब्जा कर रही है।
आवारा कुत्तों के बारे में क्या कहा जाए? कुत्ते मनुष्यों के सबसे अच्छे दोस्त रहे हैं लेकिन भारत में वे खूंखार दुश्मन बनते जा रहे हैं। हजारों वर्ष पहले कुत्तों की उत्पत्ति भेड़ियों से हुई थी, लेकिन आज सड़कों पर मुक्त विचरण करते कुत्ते जंगली भेड़ियों से भी अधिक खतरनाक लगते हैं जो बच्चों को नोंच कर खाते हैं।
इस भयावह तथ्य को हमें स्वीकार करने और तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता है। ब्रिटेन में खतरनाक कुत्तों के बारे में कानून बना हुआ है, अमेरिका और नीदरलैंड आवारा कुत्तों से अपने-अपने तरीके से निपटते हैं जिससे सड़क पर कोई जानवर नहीं दिखता है. लेकिन भारत को अभी तक इस मुद्दे के सभी खतरनाक आयामों का एहसास नहीं हुआ है।
यदि नगर निगम अधिकारियों के पास उचित बुनियादी ढांचा, बजट और जोरदार इच्छाशक्ति हो तो हमारे लगातार फैलते शहरों में कुत्तों के काटने के मामलों से नागरिकों को निश्चित ही बचाया जा सकता है। हालांकि कड़वी सच्चाई यह है कि ऐसे मामले नियमित रूप से हैदराबाद, भोपाल, नागपुर, मुंबई या मुजफ्फरपुर में होते रहते हैं और हम उन्हें हल्के-फुल्के ढंग से खारिज कर देते हैं क्योंकि ज्यादातर मामलों में पीड़ित आम लोग होते हैं, गरीब होते हैं।
खतरनाक कुत्तों से बचाव के दौरान गिर जाने के बाद देसाई को अहमदाबाद के जिस अस्पताल में ले जाया गया था, उसने कहा कि उनके शहर में कुत्तों द्वारा काटने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं।
मैं दिल्ली में रहा हूं और मैंने देखा है कि कैसे राष्ट्रीय राजधानी आक्रामक बंदरों से पीड़ित है, जो पूरी लुटियन दिल्ली में फैले हुए हैं। उस महानगर में आवारा कुत्तों की भी बड़ी संख्या है और कुत्तों के काटने की घटनाएं भयावह रूप से अधिक हैं। मैंने अमीर और पढ़े-लिखे लोगों को ‘सहानुभूति’ के नाम पर पॉश कॉलोनियों में आवारा कुत्तों (और बंदरों) को खाना खिलाते देखा है। उन्हें इस बात का अहसास भी नहीं होता कि वे कुत्तों की संख्या बढ़ाने में सीधे तौर पर योगदान दे रहे हैं।
क्या यह दुखद नहीं है कि केंद्र सरकार की नाक के नीचे बंदरों का आतंक बिना किसी समाधान के दशकों से जारी है? समय-समय पर अखबारों में बंदर पकड़ने वालों को नियुक्त करने के लिए दिल्ली सरकार के विज्ञापन देखने को मिलते हैं, लेकिन उपमहापौर एस.एस. बाजवा की मृत्यु के कई वर्षों बाद भी से इससे ज्यादा कुछ नहीं किया गया है। जब बंदरों ने बाजवा पर हमला किया तो वे ऊंची इमारत की छत से गिर गए थे। उस 52 वर्षीय भाजपा नेता की 2007 में मृत्यु हुई थी।
कुत्ते का काटना, बंदरों का आतंक, सर्प दंश और आवारा मवेशियों की बढ़ती आबादी राष्ट्रीय महत्व का एक गंभीर शहरी-ग्रामीण मुद्दा है जिसकी लंबे समय से सभी सरकारों द्वारा उपेक्षा की गई है और लोगों को अकाल मृत्यु के मुंह में ढकेला गया है। हम चांद पर तो पहुंच गए किंतु राजमार्गों पर खुलेआम घूमते मवेशियों के कारण होने वाली दुर्घटनाएं नही रोक सके; यह एक ऐसी समस्या है जिसे कोई भी सरकार स्वीकार नहीं करना चाहती।
कई गैरसरकारी संगठनों ने कुत्तों के लिए आश्रय गृह शुरू किए हैं और सामाजिक संगठनों ने ‘गौ-शालाएं’ स्थापित की हैं, लेकिन इसके बावजूद स्थिति इतनी गंभीर क्यों बनी हुई है? शायद इसका कोई स्पष्टीकरण किसी सरकार को देना नहीं है। मेनका गांधी के नेतृत्व में पशु प्रेमी अलग-अलग तर्क दे रहे हैं लेकिन आवारा कुत्तों की समस्या का स्थायी समाधान कहां है? क्या यही नए भारत की सुंदर तस्वीर है?
देसाई का दुखद निधन नए भारत के लिए कभी एक सबक बनेगा? क्या हमारे पास सख्त कानून होंगे और उनका बेहतर क्रियान्वयन होगा? किसी की जवाबदेही तय होगी?