Teacher's Day Special: 'धंधे' में बदलती जा रही है शिक्षा, टीचरों को ख़ुद में लाना होगा बदलाव
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 5, 2018 07:50 AM2018-09-05T07:50:51+5:302018-09-05T08:04:54+5:30
Teacher's Day 2018: आज औद्योगीकरण और नगरीकरण ने शिक्षा के दृश्य को बहुत हद तक बदल डाला है। बाजार और पूंजी के प्रभुत्व ने शिक्षा के दरवाजे पर जबर्दस्त दस्तक दी है।
गिरीश्वर मिश्र
शिक्षा की मुख्य धुरी के रूप में ‘शिक्षक’ निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण भूमिका में रहा है। खास तौर पर जब शिक्षा का प्रसार सीमित था और घर की चारदीवारी से बाहर की दुनिया के लिए शिक्षक ही एकमात्न खिड़की हुआ करता था। साथ ही वह एक जीवन-आदर्श भी होता था जिसे आम जन चरित्न और सद्गुणों के स्रोत के रूप में देखते थे।
अध्यापक की सामाजिक औकात और प्रतिष्ठा संदेह से परे होती थी। एक हद तक आस-पास का समाज शिक्षक के भरण-पोषण की जिम्मेदारी लेता था। शिक्षक व्यक्ति या व्यवसाय न होकर संस्था हुआ करता था और अध्यापक मानव मूल्यों का पोषण करना अपनी जिम्मेदारी मानता था।
आज औद्योगीकरण और नगरीकरण ने शिक्षा के दृश्य को बहुत हद तक बदल डाला है। बाजार और पूंजी के प्रभुत्व ने शिक्षा के दरवाजे पर जबर्दस्त दस्तक दी है। समाज की वरीयताएं ही बदल गई हैं। मुक्ति को छोड़ अब शिक्षा को अर्थ की खोज और प्राप्ति से जोड़ दिया गया है।
शिक्षा वित्त के अधीन कर दी गई है। उसे नौकरी और उद्योग धंधे से जोड़ दिया गया। यहां तक कि अब यह नारा दिया जा रहा है कि सब कुछ भूल जाओ और उद्योग की दुनिया से पूछ-पूछ कर ही ज्ञान-विज्ञान को आयोजित करो।
धंधे में बदल चुकी है शिक्षा
पढ़ाई-लिखाई का उद्देश्य उद्योग धंधा करना हो गया। अत: आज रुपया कमाना और खूब रुपया कमाना ही शिक्षा पाने का लक्ष्य हो गया है (यह अलग बात है कि इसके दुष्परिणाम भी जगजाहिर हो रहे हैं)।
पूंजी का बढ़ता वर्चस्व शिक्षा को एक वाणिज्यिक व्यवस्था का रूप दे रहा है। निजीकरण ने पूरे परिदृश्य को और भी जटिल बना दिया है। परिणामस्वरूप शिक्षा के स्तर, विषय वस्तु और प्रक्रिया में विसंगति बढ़ती जा रही है।
अब वह लोक-कल्याण और जनहित से दूर हो रही है। इसका दुखदाई पक्ष यह है कि शिक्षा की व्यवस्था पंगु होती जा रही है। अधिकांश विद्यालय, महाविद्यालय कामचलाऊ व्यवस्था के तहत जीने को बाध्य हो रहे हैं।
जमीनी हालात बुरे होते जा रहे हैं। चारों ओर अध्यापकों और संसाधनों का अभाव बना हुआ है और शासन या तो उदास या तटस्थ है या फिर राजनीतिक दखलंदाज़ी से शिक्षा तंत्न संत्नस्त हो रहा है।
आज की विकट परिस्थिति में शिक्षक को अपनी भूमिका पुन: परिभाषित करनी होगी और नए कौशलों से खुद को लैस करना होगा।