तंत्र की सुस्ती बनाम बच्चों की सुरक्षा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 20, 2025 08:18 IST2025-11-20T08:18:03+5:302025-11-20T08:18:33+5:30
वर्ष 2022 के आंकड़े बताते हैं कि 47,000 से अधिक बच्चों के लापता होने के मामलों में कुल संख्या का लगभग 72 प्रतिशत लड़कियों का था.

तंत्र की सुस्ती बनाम बच्चों की सुरक्षा
देवेंद्रराज सुथार
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कि भारत में औसतन हर आठ मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है, देश में बाल संरक्षण व्यवस्था की गंभीर कमजोरियों को रेखांकित करती है. न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन द्वारा व्यक्त चिंता केवल न्यायिक अवलोकन नहीं, बल्कि सामाजिक चेतावनी भी है, जो बताती है कि देश में बच्चों की सुरक्षा से संबंधित तंत्र अपनी मूलभूत जिम्मेदारियों को निभाने में किस हद तक विफल रहा है. इस समस्या का पैमाना अत्यंत व्यापक है और इसके प्रभाव सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक तथा नैतिक - सभी स्तरों पर गहरे दिखाई देते हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस संकट की गहराई का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. वर्ष 2023 में देश में लगभग 1.4 लाख बच्चे लापता हुए, जिनमें से लगभग 49,000 अब तक नहीं मिल सके हैं. वर्ष 2022 के आंकड़े बताते हैं कि 47,000 से अधिक बच्चों के लापता होने के मामलों में कुल संख्या का लगभग 72 प्रतिशत लड़कियों का था. पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में गायब हुई लड़कियों की संख्या दस हजार से अधिक है, जो क्षेत्रीय प्रशासन की प्राथमिकताओं, सामाजिक मान्यताओं और सुरक्षा तंत्र की दक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाती है.
2020 और 2021 के बीच लापता बच्चों के मामलों में तीस प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई, जो इस समस्या की तीव्र गति को दर्शाती है. वर्ष 2022 में अपहरण के 76,000 से अधिक मामले दर्ज हुए, जिनमें 62,000 से अधिक घटनाएं लड़कियों से संबंधित थीं, जबकि उसी वर्ष मानव तस्करी के केवल 424 मामले दर्ज किए गए. यह असमानता न केवल रिपोर्टिंग तंत्र की खामियों को उजागर करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि अपराधों को वर्गीकृत करने में कई बार गंभीर त्रुटियां होती हैं, जो वास्तविकता की तस्वीर को धुंधला कर देती हैं.
लापता होने के कारण भी जटिल और बहुआयामी हैं. यह मान लेना कि हर मामला केवल अपराध का परिणाम है, वास्तविकता का सरलीकरण होगा. कई घटनाओं में बच्चे पारिवारिक कलह, घरेलू हिंसा, परीक्षा के भय, भावनात्मक तनाव या प्रेम संबंधों के कारण घर छोड़ देते हैं.
कुछ मामलों में रोजगार या बेहतर भविष्य के नाम पर बच्चे ऐसे जाल में फंस जाते हैं, जहां से लौटना लगभग असंभव हो जाता है. यह स्पष्ट करता है कि यह संकट केवल अपराध नियंत्रण से संबंधित नहीं, बल्कि सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक कारकों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है.
समझना होगा कि लापता होते बच्चे किसी राष्ट्र की सामूहिक विफलता का संकेत हैं. इस संकट को केवल सरकार के कंधों पर छोड़ देना पर्याप्त नहीं होगा; समाज, प्रशासन, नागरिक और संस्थाएं सभी को संयुक्त रूप से जिम्मेदारी लेनी होगी. समस्या का आकार जितना बड़ा है, उतना ही बड़ा प्रश्न यह है कि हम इसे हल करने के लिए कितनी गंभीरता और तत्परता से तैयार हैं.