देशभर में फेल हो रहे आंदोलनों के बीच महाराष्ट्र के किसानों को कैसे मिली अप्रत्याशित सफलता?
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: March 14, 2018 08:51 AM2018-03-14T08:51:16+5:302018-03-14T08:51:16+5:30
#KisanLongMarch: किसानों का अनुशासन और मुम्बई के लोगों का सभी के लिए जुड़ाव की भावना ने इस आंदोलन को बल दिया। ये ब्लॉग महाराष्ट्र किसान आंदोलन को कवर कर रहे सुशील कुमार ने लिखा है।
सुशील कुमार, मुंबई:
महाराष्ट्र किसान आंदोलन के सफलता की चर्चा हर कोई कर रहा है। भले ही मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने किसानों की मांगों को पूरा करने का सिर्फ लिखित आश्वासन दिया है लेकिन इस बात से किसान नेता खुश है कि मुंबई पहुंचने के दूसरे ही दिन उन्होंने सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि सरकार अपनी समय सीमा के भीतर ही इन मांगो पर मुहर लगा देगी। क्योंकि अगर इस बार सरकार अपनी बात से पीछे हटेगी तो देशभर में भाजपा के किसानों के साथ ठगी करने और किसान विरोधी होने का संदेश पहुंचेगा। जो 2019 चुनाव में उसके लिए अच्छा संकेत नहीं है। आंदोलन में शामिल किसान भी अपने नेताओं की इन बातों से सहमत हैं।
लेकिन एक बात जो सबके जेहन में बार बार आ रही है वह ये है कि आखिर महाराष्ट्र के किसानों का यह आंदोलन इतना सफल कैसे हो गया। अगर पिछले कुछ सालों में देखे तो देश में कई बड़े किसान आंदोलन हुए। मध्य प्रदेश, राजस्थान छत्तीसगढ़ और सबसे चर्चित तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली में महीनो तक चला अनशन भी रहा। लेकिन कुछ शुरुवाती दिनों के बाद शायद ही इन आंदोलनों का कोई परिणाम निकला हो। इनमें सरकार को घेरने के लिए लगभग ये सभी बातें उठाई गयी जो महाराष्ट्र किसान आंदोलन में रखी गईं। फिर ये सभी किसान आंदोलनों की देशव्यापी चर्चा क्यों नहीं हुई।
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इस बारे में दक्षिण भारत की जानी मानी अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट न्यूज मिनट भी सवाल उठाता है। महाराष्ट्र के आंदोलन और लगभग साल भर पहले तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली में हुए आंदोलन की वह तुलना करता है। आखिर दोनों ही आंदोलन किसानों के बुनियादी मांगों को लेकर रहे। वहां भी किसानों ने सरकार को अपनी और झुकाने के लिए सभी तरह के अहिंसक रुख अपनाए। लेकिन किसी ने भी उनकी बात को ध्यान नहीं दिया। जरूर कुछ दिनों बाद न्यूज चैनलों की थोड़ी कवरेज के बाद कई विपक्ष के लोग इनसे मिलने आये लेकिन फिर भी ये किसान खाली हाथ अपने राज्य लौट आये। इस बारे में वो दो बातों को मुख्य मानता है।
पहली वजह तमिलनाडु में सभी राजनीतिक पार्टियों का आपस में एक दूसरे से अलग-थलग रहना। कोई भी इन किसानों को समर्थन देने आगे नहीं आया था। खासकर दिल्ली में मौजूद राज्य का कोई सांसद भी उनसे मिलने नहीं गया। हर कोई इससे किनारा करना चाह रहा था। दूसरी वजह तमिलनाडु के किसानों का आंदोलन उनके राज्य में न होकर दूर हो रहा था। जिस वजह से तमिलनाडु के लोग इससे नहीं जुड़ पाए। जबकि महाराष्ट्र का आंदोलन उनके राज्य में होने की वजह से सभी लोग एकजुट होकर सरकार पर हावी हो गए। और विपक्ष के लोग भी सामने आ गए।
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अगर मैं इन सभी पहलुओं को अपने नजरिये और किसान आंदोलन के बीच बिताए अनुभवों से देखें तो न्यूज मिनट की बात सच है। जब 6 मार्च को किसानों का आंदोलन नासिक से मुम्बई के लिए चला तो कहीं इसकी कोई चर्चा नहीं थी। कुछ एक स्थानीय अखबारों ने ही इसे कवर किया था। उस समय मुख्यधारा का मीडिया श्रीदेवी के गम में डूबा हुआ था। लेकिन किसानों के मुम्बई के करीब ठाणे जिले में पहुंचते ही मुम्बई में इसकी चर्चा शुरू हो गयी। खासकर सोशल मीडिया पर सामने आयी इनकी विशाल जुलूस की तस्वीर पर खूब चर्चा होने लगी। इसके साथ ही मुम्बई के स्थानीय लोगों ने इनकी रैलियों को जगह जगह रोककर अपनी ओर से हर संभव सहायता की। जो कहीं न कहीं आम लोगों को भी इस आंदोलन से जोड़ दिया।
जब रात 11 बजे मुम्बई के सोमैया मैदान में किसानों का जुलूस पहुंचा तब जाकर बड़ी संख्या में विपक्ष के लोग भी इनसे जुड़ने लगे। एक घंटे के भीतर ही इस मैदान में कांग्रेस, मनसे, शिवसेना और एनसीपी के कई बड़े नेता आये। सभी ने किसानों के इस आंदोलन में साथ खड़े रहने का भरोसा दिलाया। भले ही कुछ लोग इस पूरे आंदोलन को किसी ख़ास लेफ्ट पार्टी का प्रायोजित मान रहे हो लेकिन किसानों ने इस बात को पूरी तरह खारिज कर दिया। कई किसानों ने बातचीत में बताया कि हम जरूर लेफ्ट के झंडे के नीचे आंदोलन कर रहें है लेकिन हमें किसी भी पार्टी के किसान आंदोलन में जाने में कोई दिक्कत नहीं है। सीपीआई एम ने हमारी बात उठाई इसीलिए हम उसके साथ आये हैं।
इस पूरे आंदोलन में किसानों और नेताओं के साथ ही आम मुम्बई कर के इससे जुड़ने की दो मुख्य बातें मेरी समझ में आई हैं। पहला किसानों का अनुशासन और दूसरा मुम्बई के लोगों का सभी के लिए जुड़ाव की भावना। जब सोमैया मैदान में रात करीब 12 बजे किसान नेताओं ने यह घोषणा की कि हम रात के 2 बजे ही यहां से आज़ाद मैदान के लिए निकलेंगे तो कई बुजुर्ग किसान इस बात से नाराज हो गए। क्योंकि कई किलोमीटर पैदल चलने की वजह से वे थक गए थे और पूरी रात आराम करना चाहते थे। लेकिन जैसे ही उन्हें यह बात पता चली कि कल सबेरे बच्चों की परीक्षाएं है। उनके सबेरे निकलने में उन्हें सेंटर तक पहुंचने में दिक्कत हो सकती है तो सभी एक सुर में चलने को राजी हो गए। इस बारे में जब मैंने एक किसान से बात की तो उन्होंने बताया कि हम इतनी दूर किसी को दुःख देने नहीं आये हैं। हमारी वजह से किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
जहाँ तक मैंने मुम्बई के लोगों के उदारता की बात की तो यह मेरे पिछले 25 सालों तक इस शहर में बिताए अनुभव और किसान आंदोलन में इनके जुड़ने को लेकर कही। खुद किसानों को इस बात की गुंजाइश नहीं थी कि मुंबई जैसे व्यस्त शहर में भी लोग उनके लिए समय निकाल कर मिलने और उनका सुख-दुख बांटने आएंगे। लेकिन मुम्बई के लगभग सड़क के हर ओर खड़े होकर लोगों ने इनके खाने पीने की पूरी व्यवस्था की। इन बातों ने आंदोलन में शामिल किसानों को भी भावनात्मक रूप से मजबूत किया। और वे अपनी मांगो का सरकार से लिखित आश्वासन लेकर मुस्कराते हुए मुम्बई से विदा हुए।
* सुशील कुमार जन सरोकार के मुद्दों पर पैनी नजर रखते हैं। पेशे से फ्रीलांसर हैं। उन्होंने भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से जनसंपर्क की पढ़ाई की है।