हिमालय की जलवायु को स्वस्थ रखने के लिए निरंतर संघर्षरत पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक का यह कहना अतिशयोक्ति बिल्कुल नहीं है कि हालात ऐसे ही रहे और ग्लेशियर पिघल गए तो 144 साल बाद अगला महाकुंभ रेत पर होगा. कहने का आशय यह है कि वहां कोई नदी होगी ही नहीं.
वांगचुक की यह चेतावनी तथ्यों पर आधारित है. प्रयागराज स्थित संगम में मौजूद गंगा और यमुना के साथ गुप्त रूप से प्रवाहित सरस्वती नदी की कल्पना भी की जाती है. वैज्ञानिक मानते हैं कि कोई पांच हजार साल पहले सरस्वती नदी का वजूद था. भूगर्भीय हलचल ने सरस्वती की धारा बदल दी और मौसम के रूठेपन ने उस नदी को मार डाला. नदियों की मौत का यह सिलसिला चल ही रहा है.
आज न जाने कितनी नदियां समाप्त हो चुकी हैं. सोनम वांगचुक बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि हिमालय के ग्लेशियर गंभीर संकट की स्थिति में हैं. जिस गोमुख से गंगा निकलती हैं, वह निरंतर पीछे खिसकता जा रहा है. 2012 और 2016 में गोमुख के पास ग्लेशियर का बड़ा टुकड़ा टूटा भी था. इन सबका कारण ग्लेशियर में कम होती बर्फबारी है. ये ग्लेशियर ही किसी भी नदी को जिंदा रखते हैं.
उत्तर और पूर्वोत्तर भारत की ज्यादातर नदियां हिमालय की गोद से निकलती हैं और हिमालय में मौजूद 9 हजार से ज्यादा ग्लेशियर इन नदियों को जिंदा रखते हैं लेकिन पिछले तीस सालों में स्थिति विस्फोटक हुई है. जलवायु परिवर्तन तो बड़ा कारण है ही, हिमालय में मानव का हस्तक्षेप भी बहुत बढ़ा है. जगह-जगह सुरंगें खोदी जा रही हैं और पर्यटन के नाम पर हिमालय को रौंदा जा रहा है. हर साल लाखों पर्यटक घुमक्कड़ी के लिए हिमालय पहुंचते हैं और हजारों टन कचरा पहाड़ पर छोड़ आते हैं.
इस कचरे को हिमालय से दूर ले जाने की कोई सार्थक व्यवस्था नहीं है. कागजों पर बहुत कुछ हो रहा है लेकिन पहाड़ पर नहीं हो रहा. केंद्र सरकार ने कुछ साल पहले हिमालय इको मिशन का गठन किया था जिसके तहत पंचायतों को भूमि, वन और जल संरक्षण एवं प्रबंधन की जिम्मेदारी दी जानी थी लेकिन उस मामले में क्या हुआ, किसी को नहीं पता. जहां तक बेहतर सड़कों और ऊर्जा उत्पन्न करने का सवाल है तो निश्चय ही हिमालय में बसने वाले हर व्यक्ति को इसकी जरूरत है लेकिन हिमालय के विनाश की कीमत पर नहीं!
हिमालय तबाह हो रहा है तो इसका असर केवल पहाड़ पर नहीं, नीचे मैदानी भाग पर भी पड़ रहा है. केवल तीस-चालीस साल पहले गंगा में हर जगह भरपूर पानी भरा रहता था. यमुना स्वस्थ थीं. लेकिन मनुष्य की लालसा ने गंगा को भी पानी के लिए तरसा दिया है. उत्तरप्रदेश-बिहार से लेकर बंगाल तक यदि गर्मी में आप गंगा किनारे खड़े हों तो वास्तविक चौड़ाई के एक छोटे से हिस्से में गंगा सिमटी नजर आती हैं.
डर लगता है कि वक्त के किसी काल में क्या सरस्वती की तरह गंगा भी धरती में समा जाएंगी? वांगचुक यही तो कह रहे हैं! ये नदियां बची रहेंगी तो हम भी बचेंगे. सोनम वांगचुक की चिंता हम सबकी चिंता होनी चाहिए. वांगचुक ने ग्लेशियर बचाने का बेहतरीन रास्ता भी दिखाया है. सरकार, हम उस रास्ते पर क्यों नहीं चलते?