मिट्टी की सेहत का ध्यान रखकर ही हम रह सकते हैं स्वस्थ, नवीन जैन का ब्लॉग

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: December 5, 2020 04:08 PM2020-12-05T16:08:53+5:302020-12-05T16:10:35+5:30

नदियों से बहकर आई जलोढ़ मिट्टी, काली, लावा मिट्टी को श्रेय दिया जाता है. इसी तर्ज  पर मराठवाड़ा से लगे खानदेश अंचल में मूंगफली, सनफ्लावर, थोड़ा- बहुत केला और पपीता उपजाया जाता है.

Soil Day is observed from 5 December 2013 taking care health stay healthy Naveen Jain's blog | मिट्टी की सेहत का ध्यान रखकर ही हम रह सकते हैं स्वस्थ, नवीन जैन का ब्लॉग

मराठवाड़ा में बदलते मौसम की वजह से कभी बाढ़ आ जाती है, तो कभी सूखा उर्फ दुष्काल पड़ जाता है. (file photo)

Highlightsमराठवाड़ा और कहीं-कहीं विदर्भ में भी गन्ने की दो फसलें ली जाती हैं.महाराष्ट्र के पश्चिमी अंचल में गन्ने की खेती बंद भी कर दी जाए तो उचित हो सकता है.

मिट्टी के संरक्षण को लेकर 5 दिसंबर 2013 से मृदा दिवस मनाया जाता है. महाराष्ट्र में यूं तो कई फसलें होती हैं, मगर पूरे देश को शक्कर, प्याज, संतरा, अंगूर, चीकू यही सूबा खिलता है.

चर्चा आम है कि यहीं के  जिले नासिक की मंडियों से पूरे देश के प्याज के भाव तय होते हैं. वैसे तो आलू को सब्जियों का राजा कहा जाता है, लेकिन प्याज को आलू का सगा भाई भी कहा जा सकता है. लोग प्याज से रोटी खाकर पेट भर लेते हैं.

इस प्रदेश की कैश क्रॉप यानी नकदी फसलें गन्ने, अंगूर, चीकू और कपास को कहा जाता है. इसी राज्य के पश्चिमी अंचल में सबसे ज्यादा शक्कर मिलें हैं क्योंकि इस इलाके में गन्ने की फसल नंबर एक पर ली जाती है. इसीलिए यहां शक्कर की कई मिलें हैं.

दूसरा नंबर उत्तर प्रदेश का आता है. मराठवाड़ा और कहीं-कहीं विदर्भ में भी गन्ने की दो फसलें ली जाती हैं. उक्त सभी फसलों के अच्छे उत्पादन में नदियों से बहकर आई जलोढ़ मिट्टी, काली, लावा मिट्टी को श्रेय दिया जाता है. इसी तर्ज  पर मराठवाड़ा से लगे खानदेश अंचल में मूंगफली, सनफ्लावर, थोड़ा- बहुत केला और पपीता उपजाया जाता है.

पुणे स्थित मशहूर कृषि एवं भू-वैज्ञानिक राजेंद्र सिंह का कहना है कि महाराष्ट्र के पश्चिमी अंचल में गन्ने की खेती बंद भी कर दी जाए तो उचित हो सकता है. कारण बताया गया कि यहां की मिट्टी या सॉइल पानी को सोखकर ही नहीं रखती, जिसके चलते एक किलोग्राम गन्ने की उपज के लिए 292 लीटर तक पानी की सिंचाई करनी पड़ती है, जबकि उत्तर प्रदेश में एक किलोग्राम गन्ने को अधिक से अधिक 99 लीटर पानी देना पड़ता है. इसी प्रोविंस एवं मराठवाड़ा में बदलते मौसम की वजह से कभी बाढ़ आ जाती है, तो कभी सूखा उर्फ दुष्काल पड़ जाता है.

नागपुर का बेल्ट न जाने कितने वर्षो से संतरे की  फसल के लिए जाना जाता है. कुछ समय से इस अति पौष्टिक और स्वादिष्ट फल के उत्पादन को नजर इसलिए लग गई, क्योंकि इसकी मिट्टी की समय-समय पर आवश्यक जांच नहीं की गई और रासायनिक उवर्रकों का भी मनमाना उपयोग किया गया, जिससे संतरे एवं खेतों की उत्पादकता में भी कमी आई.

कृषि वैज्ञानिक आलोक देशवाल कहते हैं कि विदर्भ, मराठवाड़ा और गन्ना बेल्ट की मुख्य समस्या यह है कि इन इलाकों में बारिश के पानी को रिचार्ज नहीं किया जाता. नमी सूखने के चलते मिट्टी का भुरभुरापन समाप्त होता जाता है. रासायनिक उर्वरक सिर्फ जमीन के इको सिस्टम को ही आघात नहीं पहुंचाते बल्कि इससे मानव जीवन के विभिन्न अंगों पर दुष्परिणाम पड़ सकता है. कुल मिलाकर देश की खेती की पूरी जमीन में 50 फीसदी जिंक, 30 से 40 फीसदी सल्फर की कमी आती जा रही है.

पोटाश की कमी आना तो आम चर्चा का विषय है. लगभग यही हालत ऑर्गेनिक कार्बन, पोटेशियम नाइट्रोजन की है. सिक्किम देश का पहला अनुकरणीय प्रदेश है, जहां सौ प्रतिशत खेती जैविक रूप से ही होती है. इसके कानून को न मानने पर कड़ी सजा का प्रावधान है. मध्य प्रदेश को भी जैविक खेती के लिए नवाजा जा चुका है.

छत्तीसगढ़ में एक किसान ने गोबर, गोमूत्न, धतूरा, बेशरम आदि से जैविक खाद बनाकर उसे पेटेंट करवाने की तैयारी कर ली है. एक शोध में जाहिर हो चुका है कि भारत में रासायनिक उवर्रकों का कारोबार  प्रति वर्ष 224 अरब डॉलर का हो चुका है.

खेती तथा भू जानकार कहते हैं कि इनमें से कई उर्वरक विदेशों में प्रतिबंधित हैं, लेकिन भारत के कई बाजार इनके लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं. लोग अक्सर इजराइल की संरक्षित खेती का हवाला देते मिल जाएंगे, मगर यदि उसका अनुसरण न भी किया जा सके तो जयपुर के निकट स्थित एक कस्बे के किसान से संरक्षित खेती की प्रेरणा ली जा सकती है, जो मात्न छह एकड़ में विभिन्न फसलें लेकर
वर्ष में एक करोड़ रुपए का टर्न ओवर लेता है. पहले यह जमीन रेगिस्तान थी.

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