'सत्य कभी सड़क पर साबित नहीं किया जा सकता'
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 11, 2018 05:16 PM2018-08-11T17:16:06+5:302018-08-11T17:27:37+5:30
शरद जोशी: मशहूर व्यंग्यकार, कवि और लेखक। 21 मई 1931 को उज्जैन में जन्म। सितंबर 1991 को मुंबई में निधन। भारत सरकार ने साहित्य में उनके योगदान के लिए 1990 में पद्म श्री से सम्मानित किया। पढ़ें सत्य और असत्य पर लिखा उनका लेख।
शरद जोशी
जो सत्य सिद्ध नहीं किया जा सके, वह असत्य है - यह तर्क बड़ा पुराना है। इससे सबसे बड़ा लाभ सत्य के अन्वेषकों को नहीं मिल पाया है, जितना कि एक सत्य को छुपानेवालों को। पहाड़ में आग है, उसकी वास्तविकता उसी दिन सन्मुख आती है, जब वह ज्वालामुखी बनकर बरस जाए और विवाद करनेवाले ही उसमें राख हो जाएं। चुनौती सदैव अच्छा शस्त्र होती है, जिससे मुंह बंद किया जा सकता है, क्योंकि इसका क्रम बड़ा विचित्र है।
पहले तो असत्य को स्वीकृत करते रहने के हमारे संस्कार, उसके प्रति मोह, फिर उसमें से पाए जानेवाले सत्य की झलकियों को भ्रम समझ लेना, उन झलकियों से वास्तविकता का रूप पहचानने की इतनी तीव्र कल्पना और फिर उसका उद्घाटन करने का साहस तथा उद्घाटन हो जाने पर उसके लिए सामाजिक अथवा समूह विशेष की स्वीकृति प्राप्त कर लेना बड़ा कठिन है।
सत्य को यदि आप अस्वीकार कर दें तो कोई रास्ता नहीं है। दो-दो चार होते हैं - पर उसी के लिए, जो गिनती जानता है - सच्चाई स्वीकार कर सकता है। जो नहीं जानता, उसके लिए सिद्ध करना क्या मतलब रखता है। अत: सत्य को सिद्ध करने से भी अधिक महत्व की बात है कि वह सामनेवाला स्वीकार कर ले। चुनौती मंजूर की जा सकती है, बशर्ते वह किसी ईमानदार ने प्रेषित की हो। जो सत्य से इनकार करने की सोच बैठा हो, उसे क्या सिद्ध करें?
एक बार एक जाट अपने घर के बाहर बैठकर चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा, ‘‘जो कोई भी बीस और पांच पच्चीस साबित कर दे, उसे सौ रुपए दूंगा!’’ पीछे से पत्नी ने कहा, ‘‘अजीब हो! बीस और पांच पच्चीस ही होते हैं, सौ रुपए से हाथ धो बैठोगे!’’ जाट ने कहा, ‘‘वह तो मैं भी जानता हूं, मगर मंजूर करूं तब न! लोग कहेंगे और मैं मानूंगा ही नहीं।’’
अत: सत्य कभी सड़क पर सिद्ध नहीं किया जा सकता। उसे सिद्ध करने के लिए लेबोरेटरी चाहिए और आसपास ईमानदार वैज्ञानिकों का वातावरण। यदि आप अकेले हैं, तो चाहे मर जाएं, मगर दुहराते हैं कि सत्य यही है, सत्य यही, और जमाना आएगा तो लोग आपकी बात मान लेंगे। और ऐसा ही असत्य के बारे में है कि कहते हैं, उसे बार-बार दुहराते रहें तो वह सत्य हो जाता है। सच बोलने के लिए भी समझदारों को एक वातावरण की आवश्यकता होती है, जहां उसे पागल नहीं कहा जा सके।
अमेरिका के हिसाब से यह सत्य है कि अपन रूस के ही पूरी तौर से हैं और वह हमारे इस सत्य को पागलपन भी मान लेगा कि पाकिस्तान उसका मित्र नहीं, सैनिक विषयों में गुलाम भी है।
अत: जहां आर्थिक सहायता प्राप्त होती हो, वहां आध्यात्मिक सहानुभूति से भी इनकार कर दिया जाएगा।
(रचनाकाल : 1950 का दशक)
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