शरद जोशी का कोनाः कलाकार और चेक मिलने की खुशी

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 29, 2019 08:12 PM2019-06-29T20:12:10+5:302019-06-29T20:12:10+5:30

उस चेक को देख जिस पर हजूर खजाना लिखा रहता है और बैल जोड़े की पुरानी सील लगी है- आप सोचते हैं कि हमारी कला के परिश्रम की ही यह देन है. मगर तीन दिन बाद पता लगता है कि हम जो समङो थे, वैसी बात नहीं है.

sharad joshi Column on payment of art work | शरद जोशी का कोनाः कलाकार और चेक मिलने की खुशी

शरद जोशी का कोनाः कलाकार और चेक मिलने की खुशी

Highlightsएक कवि मित्र जो इस नगर के नहीं थे, बैंक में यह सबूत पेश करने में असमर्थ थे कि वे वही हैं जिसका नाम चेक पर है. कविता से चपरासी का महत्व अधिक है, यह ज्ञान उसी दिन हुआ. इसी बीच यदि बैंक का समय खत्म हो जाए तो वह सारी रात टप्पे खाता रहता.

मालवा की जमीन पर उपजे कलाकारों के लिए कला और पैसे में कहीं एक जोड़ बिठाने की कल्पना करना ही मुश्किल है. अभी तक का इतिहास यही है कि जिसने भी लिखा, वह या तो किसी स्कूल में मास्टर हो गया, पत्रकार हो गया, क्लर्क हो गया या बड़ी किस्मत रही तो वकील हो गया. और जिसके दिमाग में यह आई कि कला के साथ ही, उसी आसरे रोटी, मकान और चाय की भी व्यवस्था हो सकती है, तो उसे मालवा छोड़कर जाना पड़ा. अब रेडियो खुल गया है और अक्षरों के नेता, गले के माहिर, तारों को झनझनाने वालों को मालवा हाउस का रास्ता मालूम पड़ गया है.

आप द्रुत लय पर मालकोस गाइए, स्वरों के उतार-चढ़ाव के साथ अपनी भावुक अदायगी नाटक में कीजिए, किसी विषय को समझाएं, व्याख्या सहित अपनी कविता सुनाइए- और भारी दरवाजों को हटाकर बाहर आइए, चेक लीजिए.

उस चेक को देख जिस पर हजूर खजाना लिखा रहता है और बैल जोड़े की पुरानी सील लगी है- आप सोचते हैं कि हमारी कला के परिश्रम की ही यह देन है. मगर तीन दिन बाद पता लगता है कि हम जो समङो थे, वैसी बात नहीं है.

रेडियो की सफलता और चेक मिलने का हर्ष हजूर खजाने की देहरी पर जाकर चूर हो जाता है. उस समय आप कलाकार नहीं, साधारण इनसान रहते हैं; जो बेईमान न हो, इसका पूरा शक बना रहता है. तीन घंटे तक वह व्यक्ति जो अपने पन्द्रह मिनट के पच्चीस रुपए लेता है, वहां खड़ा रहता है. एक बार को ऐसा भी भय होता है कि शायद अपना चेक अब नहीं भुनेगा, हमसे कोई गलती हो गई है. हजूर खजाने पर उस कलाकार को अगर उसी दिन छुट्टी मिली तो वह तेज तांगे या टैक्सी से ढाई मील दूर इम्पीरियल बैंक जाता है, और यहां अपने बारे में बने हुए रहे-सहे भ्रम भी सब समाप्त हो जाते हैं.

एक कवि मित्र जो इस नगर के नहीं थे, बैंक में यह सबूत पेश करने में असमर्थ थे कि वे वही हैं जिसका नाम चेक पर है. उसने कई बार वहां समझाया- जी, मुङो ही यह चेक मिला है, मैं ही कवि हूं, पर कौन विश्वास करे? उन्होंने अपना कविता संग्रह निकाला और बताया कि मैं ही यह कवि हूं, पर वे नहीं माने. उसने कविता संग्रह में छपा अपना चित्र दिखाया पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ. आखिर उनके मित्र के परिचित एक चपरासी ने अपनी असीम अनुकम्पा से गवाही दी और चेक भुना. कविता से चपरासी का महत्व अधिक है, यह ज्ञान उसी दिन हुआ. इसी बीच यदि बैंक का समय खत्म हो जाए तो वह सारी रात टप्पे खाता रहता.

(रचनाकाल - 1950 का दशक)

Web Title: sharad joshi Column on payment of art work

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