शरद जोशी का ब्लॉग: ताश का खेल और राजनीति
By शरद जोशी | Published: October 6, 2019 07:21 AM2019-10-06T07:21:07+5:302019-10-06T07:21:07+5:30
गांधीवाद दिल बदलना सिखाता है, चीजें छीनना नहीं. शांति के युग में कर शतरंज पर लगे तो ठीक भी है, पर ताश तो प्रजातंत्र का खेल है. जिस किसी को प्रजातंत्र समझना हो, उसे ताश समझना चाहिए.
रावण जैसा महत्वाकांक्षी व्यक्ति भी शतरंज का शौकीन था. मंदोदरी के साथ एक बाजी खेल ही लेता था, हालांकि उसके भी सपने थे, वह आसमान तक सीढ़ी बनाना चाहता था. तो ऐसे इनडोर गेम बुरी चीज नहीं हैं. पर नेताओं को यह भी अखर रहा है, नेहरूजी ने कहा है कि आराम हराम है, हमें भविष्य बनाना है. मैं मानता हूं मगर घड़ी-दो घड़ी ताश खेल लेना कोई बुरी बात नहीं.
आप जानते हैं, नेताओं की तो बात छोड़ो, पर बाकी सबसे अधिक व्यस्त बच्चे रहते हैं. उनके पास ढेरों समस्याएं हैं. अपनी धरती पर वे डेलीगेशन की तरह घूमते हैं और हर चीज को बारीकी से समझने की चेष्टा करते हैं. पर फुरसत मिलते ही वे भी चंग पो, डाकन पौवा या शेर-बकरी खेलने लग जाते हैं.
अब सरकार ताश पर कर लगा रही है. बेकारी के जमाने में एक केरेवन का पैकेट अगर वक्त काट देता है तो वित्त मंत्री देशमुख को जाने क्यों पसंद नहीं! मन बहलाने के लिए सिनेमा महंगा है. रेडियो भी सिरदर्द हो जाता है, मगर ताश के बावन पत्ते वर्ष के बावन सप्ताहों के मनोरंजन के लिए काफी हैं. फिर ताश के काफी खेल मनुष्य का चरित्र निर्माण करते हैं. जैसे तीन-दो-पांच कम सुविधा से ज्यादा प्राप्ति करना सिखाता है. सात हाथ हममें लगन व धैर्य उत्पन्न करता है. झब्बू बेगार कैसे टालना, यह बताता है. लालपान सत्ती का खिलाड़ी जानता है कि प्रत्येक वस्तु का कितना महत्त्व है. ताश छीनने से मनुष्य नहीं सुधरता, उसकी भावना बदलिए. गांधीवाद दिल बदलना सिखाता है, चीजें छीनना नहीं. शांति के युग में कर शतरंज पर लगे तो ठीक भी है, पर ताश तो प्रजातंत्र का खेल है. जिस किसी को प्रजातंत्र समझना हो, उसे ताश समझना चाहिए.
ताश में अलग प्रकार के पत्ते हैं, जैसे- ईंट, पान, हुकुम और चिड़ी. वैसे ही देश में अलग तरह की पार्टियां होती हैं. ताश में तुरुप आ जाती है, और उस प्रकार के सब पत्ताें का महत्व बढ़ जाता है, जैसे हुकुम की तुरुप होने पर उसकी र्दुी भी महत्व की हो जाती है. वैसे ही पार्टियों में भी एक कोई चुनाव में जीत जाती है तो मन में फूली नहीं समाती. वक्त पड़ने पर वह इक्के को काट भी सकती है.
तो ताश तो प्रजातंत्र का खेल है. उसमें चाहे राजा और गुलाम हों पर आधार दूसरे हैं. रहा र्दुी और दहले का सवाल तो चपरासी और सेक्रेटरी भी होते ही हैं. वह जमाना तो है नहीं कि सब बराबर हों! सारी जनता एक घाट पानी पीती हो! श्रीराम प्याऊ और रेफ्रिजरेटर के फर्क को समझना चाहिए.
(रचनाकाल - 1950 का दशक)