नरेंद्र नाहटा का ब्लॉगः प्रशासनिक संस्कृति को सुधारना विधायिका का दायित्व
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 18, 2020 01:10 PM2020-08-18T13:10:29+5:302020-08-18T13:10:29+5:30
अपने मध्यप्रदेश मंत्निमंडल के छोटे से अनुभव के आधार पर मैं वर्षो से कहता रहा हूं कि नेताओं के हाथ से प्रशासन जा चुका है. केंद्र में थोड़ी व्यवस्था शेष रही होगी, राज्यों की स्थिति बहुत बुरी है. 1985 में जब मैं पहली बार विधायक बना तो मुङो एक जिला पुलिस अधीक्षक ने कहा था, ‘राज तो हम ही चलाएंगे’. वे सही थे.
संजीव सबलोक एक पूर्व आईएएस अधिकारी रहे हैं. उनकी एक किताब आई है, ‘सीइंग दि इनविजिबल’. उसी किताब में से एक अध्याय एक अंग्रेजी अखबार में छपा. शीर्षक था- प्रधानमंत्नी और मुख्यमंत्नी आईएएस की कठपुतलियां हैं. यदि यह लेख किसी राजनेता का होता तो विरोधी पक्ष का मान लिया जाता या उसकी कुंठा. यदि पत्नकार ने लिखा होता तो सामान्य सी बात लगती. मुङो तब हैरानी हुई कि यह एक पूर्व सिविल सर्वेट ने लिखा है.
श्री सबलोक ने अपने लेख में बताया कि किस तरह अधिकारी दिल्ली के पर्सनल डिपार्टमेंट में अपनी पदस्थापना से लगा कर करियर संबंधित हर बात को ऐसे जमा लेते हैं कि प्रधानमंत्नी और मुख्यमंत्नी भी विवश हो जाते हैं. लेख के अंत में लेखक ने सरकार द्वारा की जा रही सीधे भरती की प्रशंसा की. उम्मीद की है कि मोदी सरकार आईएएस को समाप्त कर देगी. दोनों मुद्दों पर बहस की जा सकती है. सीधी भरती का उद्देश्य तो प्रशासनिक कम, राजनीतिक ज्यादा है परंतु निजी तौर पर मैं मानता हूं कि आईएएस समाप्त करना पानी के साथ टब को फेंकने जैसा होगा.
परंतु वर्तमान प्रशासन की संस्कृति को लेकर लेखक सही है. यदि लेखक ने सिविल सर्वेट्स का पक्ष रखा तो दूसरी ओर राजनेता और दल भी कम जवाबदार नहीं हैं. यदि राजनेता अपने ही मातहत अधिकारियों की कठपुतली बन चुके हैं तो उनका दोष ज्यादा ही है. शिक्षित मध्यम वर्ग राजनेताओं की अनपढ़ता की बहुत बात करता है. मानता है कि सदन में- लोकसभा या विधानसभा- बहुमत कम पढ़े-लिखे लोगों का है.
उन्हें पता नहीं कि पहली लोकसभा में जहां मात्न 18.33 प्रतिशत शिक्षित थे, वहीं अब 75 प्रतिशत से अधिक शिक्षित हैं. क्या विश्वास होता है कि इतने पढ़े-लिखे लोग सदन में होते होंगे? लेकिन सच यह भी है कि संविधान सभा से लगाकर दूसरी, तीसरी लोकसभा तक उन कम पढ़े-लिखे सदस्यों की सदन में हुई बहस आज भी शोध विद्यार्थी देखते हैं. शिक्षित सदस्य अपेक्षाओं पर भी खरा नहीं उतरा.
अपने मध्यप्रदेश मंत्निमंडल के छोटे से अनुभव के आधार पर मैं वर्षो से कहता रहा हूं कि नेताओं के हाथ से प्रशासन जा चुका है. केंद्र में थोड़ी व्यवस्था शेष रही होगी, राज्यों की स्थिति बहुत बुरी है. 1985 में जब मैं पहली बार विधायक बना तो मुङो एक जिला पुलिस अधीक्षक ने कहा था, ‘राज तो हम ही चलाएंगे’. वे सही थे.
परिणामोन्मुख प्रशासन के लिए पहली आवश्यकता है राजनेताओं की योग्यता और नैतिकता. अब उन मंत्निमंडलों को तो छोड़ दीजिए जहां दूसरी पार्टी के सदस्यों को उपकृत करने के लिए पद दिया जाता है. उनसे क्या उम्मीद होगी. वैसे भी अब राज्यों में मंत्निपरिषद सरकार चलाने के लिए नहीं बनाई जाती. प्राथमिकता राजनीति है, वह भी विचारधारा और कार्यक्रम की नहीं, निजी महत्वाकांक्षाओं की.
राजनीतिक संस्कृति प्रशासनिक योग्यता के अतिरिक्त सब कुछ देखती है. उसके लिए यह आवश्यक है कि टीम के सदस्य ऐसे लोग चुने जाएं जिनकी अयोग्यता ही उन्हें निष्ठावान बना कर रखे. सरकार चलाने के लिए टीम की जरूरत नहीं. वह कार्य तो मुख्यमंत्नी कार्यालय कर लेगा. प्रदेश में सत्ता का केंद्रीकरण होता जा रहा है. संभावना और योग्यता वाले नेता कम से कम होते चले जाएं, केवल इसी बात को लेकर सभी दलों की कार्यशैली समान रही है.
इस व्यवस्था का यही दुष्परिणाम हुआ कि राज्यों में ब्यूरोक्रेसी हावी हुई और नेता कठपुतली हो गए. हर सरकार की यह व्यवस्था होगी कि ऐसी परिस्थितियां निर्मित की जाएं कि विभागीय प्रमुख सचिव और मंत्नी की नहीं बने. मंत्नी हर बार मुख्यमंत्नी की ओर देखे. विधायकों और मंत्रियों की यह शिकायत शाश्वत हो गई है कि अधिकारी नहीं सुनते हैं. राजीव गांधी ने प्रधानमंत्नी के रूप में जनवाणी कार्यक्र म शुरू किया था.
मंत्रियों को जनता के सवालों का जवाब देना होता था. कुछ मंत्नी इस कार्यक्रम में खराब प्रस्तुतिकरण के कारण हटाए तक गए. क्या राज्य में सरकार ऐसा ही कोई कार्यक्रम, जहां मंत्नी विभाग का विजन समझाए और जन भागीदारी सुनिश्चित करे, संभव है? शायद अधिकांश मंत्नी तैयार नहीं हों. मंत्नी अपने विभाग के प्रति ही उत्तरदायी नहीं रहा.
इसलिए जहां सिविल सर्विस दोषी है, नेता भी कम नहीं. चिंतन कार्यपालिका को नहीं, विधायिका को ही करना है. उन्हें प्रमाणित करना है कि उन्हें घुड़सवारी आती है. यदि वे नहीं कर पाए तो दोष घोड़े का नहीं सवार का ज्यादा है. हमें पंडित नेहरू और सरदार पटेल के समय में लौटना होगा.