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सारंग थत्ते का ब्लॉग: 1971 का युद्ध, जब तेरह दिन की जंग से दंग रह गई थी दुनिया

By सारंग थत्ते | Updated: December 16, 2020 07:57 IST

1971 में हुई भारत-पाकिस्तान की जंग वैसे तो केवल 13 दिनों में खत्म हो गई और ये दुनिया के सबसे छोटी जंगों में से एक है. हालांकि, इसके परिणाम दूरगामी हुए. भारत ने पाकिस्तान को कई मोर्चों पर मात दी.

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ठळक मुद्देभारत के लिए एक समय दो मोर्चों पर लड़ाई मुश्किल थी, इसलिए भारतीय सेना पूरी तैयारी के बाद जंग में उतरी विश्व के सैनिक इतिहास में अब तक की सबसे छोटी जंग लेकिन भारत की बेहतरीन तैयारी ने दिलाई जीतइंदिरा गांधी के संयम, दूरदृष्टि और जनरल मानेकशॉ पर उनका भरोसा भी भारत की जीत के लिए अहम बना

28 अप्रैल 1971 को नई दिल्ली में कैबिनेट की बैठक और एक अहम फैसला- पूर्वी पाकिस्तान पर आक्रमण! सेना प्रमुख जनरल मानेकशॉ इसके लिए कतई तैयार नहीं थे- उन्होंने अपनी बात मैडम गांधी के सामने रखी. 

खरी-खरी सुनाने वाले जनरल की बात में दम था, पर जिस प्रकार से बात कही गई थी, इंदिराजी को पसंद नहीं आई. उन्होंने मीटिंग बर्खास्त की और जनरल मानेकशॉ को अपने दफ्तर में बुलाया. बंद कमरे में मंत्रणा हुई - प्रधानमंत्री और उनके सेनापति के बीच. 

कैबिनेट की मीटिंग में सबको यकीन था कि इंदिराजी की बात को कोई नहीं टाल सकेगा और सेना अपना काम करने की जिम्मेवारी तुरंत ले लेगी. परंतु वैसा हुआ नहीं. जनरल मानेकशॉ ने इंदिराजी को सेना की हालत का जायजा दिया, उस समय सिर्फ एक आर्मर्ड डिवीजन हमारे पास थी और केवल 18 टैंक ही युद्ध के काबिल थे. 

तैयारी के लिए सेना ने मांगा समय

ऐसी हालत में दो तरफा लड़ाई में हार 100 प्रतिशत होनी थी. इस बात की गारंटी मानेकशॉ ने मीटिंग में दी थी- उन्हीं कड़े शब्दों में!! उस समय पूर्वी पाकिस्तान से जनरल याहया खान के हुक्म ‘लाल कर दो धरती को बांग्लादेशियों के खून से’ के निर्णय को वहां की सेना ने ऐसा अंजाम दिया कि बाशिंदों को मौत से बचने के लिए भारत में शरण लेनी पड़ी थी. 

हजारों की संख्या में शरणार्थी हमारी सीमा में प्रवेश कर चुके थे- यह बोझ दिन-पर-दिन बढ़ रहा था, फिर भी इंदिराजी ने इसकी रोकथाम के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोशिश जारी रखी, वे खुद विदेश दौरे पर गईं और सभी बड़े नेताओं से बात की.

इधर जनरल मानेकशॉ का तर्क था कि इस समय जहां सेना की तैयारी बेहद कमजोर है, वहीं आने वाले बरसात के मौसम में पूर्वी पाकिस्तान की सभी नदियां उफान पर हो जाएंगी और हमारी सेना फंस सकती है. उन्होंने प्रधानमंत्री से समय मांगा और इस बात की गारंटी दी कि यदि हमें संपूर्ण जीत चाहिए और 1962 के चीनी आक्रमण और हार को दोहराना नहीं हो तो आक्रमण कब करना है, यह सेना पर छोड़िए. 

इंदिरा गांधी का संयम और सेना पर भरोसा

इंदिराजी की दूरदृष्टि और अपने सेनापति पर किए गए भरोसे ने इतिहास में एक नया और स्वर्णिम अध्याय लिख दिया. इसके बाद शुरू हुआ एक बेहद संवेदनशील विचार-विमर्श. बहुत ही खुफिया तरीके से सेना की कमियों को दूर करने के लिए धन का आवंटन हुआ। 

रूस से नए टैंक और अन्य साजो-सामान मंगाए गए, सेना की यूनिटों का नूतनीकरण किया गया, पूर्वोत्तर में सड़क निर्माण, सेना के ट्रेनिंग सेंटरों में नए रंगरूटों की भर्ती शुरू हुई, छुट्टियों पर रोक लगी, प्रशिक्षण कार्यक्रम को छोटा और पैना किया गया, पुल निर्माण की यूनिटों को पश्चिमी मोर्चे से पूरब भेजा गया.

यह सब इस तरह संजोया गया कि दोनों मोर्चो पर होने वाले आक्रमण की पूरी तैयारी के लिए हमने अपनी कमर कस ली थी. पश्चिमी मोर्चे पर आक्रामक रूप से बचाव की मुद्रा के अनुरूप फॉरमेशन को लगाया गया, पूर्वी मोर्चे पर पूर्वी कमान के चीफ ऑफ स्टाफ मेजर जनरल जेकब की अगुवाई में पाकिस्तानी सैनिक छावनियों से न भिड़ते हुए सीधे ढाका की तरफ कूच करने की योजना बनाई गई. 

नौसेना ने पाकिस्तान के कराची बंदरगाह की घेराबंदी करने को मूर्तरूप दिया और भारतीय वायुसेना ने अपने दम-खम से जमीनी आक्रमण को पूरी तरह समर्थन को अंजाम देने की रूपरेखा बनाई. इस सबके बीच भारत ने बांग्लादेश से विस्थापित बांग्लादेशी युवकों को हथियार देकर मुक्ति वाहिनी के लिए 60000 युवकों की एक फौज को प्रशिक्षण देने का जिम्मा मिजोरम और त्रिपुरा में शुरू किया. 

तीनों सेनाओं के सामने युद्ध की तैयारी के लिए ये छह महीने काफी मुश्किलात भरे थे- लेकिन हमने सेनापतियों पर भरोसा दिखाया और समय से काम को पूरा किया- यह भारतीय सैन्य इतिहास में सबसे बेहतर पर्व था.

केवल 3000 भारतीय सैनिकों और ढाका की जीत

मुक्ति वाहिनी ने पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर अलग-अलग जगह हथियारों से पाकिस्तानी सेना से छोटे-छोटे मोर्चे खोले, यह भी इस पूरे प्लान का हिस्सा था। जनरल मानेकशॉ चाहते थे कि पाकिस्तानी जनरल नियाजी, जिनके जिम्मे पूर्वी पाकिस्तान की सेना थी- अपने सैनिकों को टुकड़ियों में बांटकर अपने सैनिक अड्डों से दूर भेजें. जनरल नियाजी को लगा कि बेदखल किए गए बांग्लादेशी अपनी जमीन हथियाने की कोशिश कर रहे हैं. 

इस कमजोर कड़ी को जनरल जेकब ने दिसंबर के युद्ध में अपने मात्र 3000 सैनिकों से ढाका की जंग जीती थी. वहां 20000 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक मौजूद थे पर ढाका चारों तरफ से घिर गया था.

3 दिसंबर 1971 को पश्चिमी पाकिस्तान ने भारत पर जबरदस्त आक्रमण किया और हमारे 11 सैनिक हवाई अड्डों पर बमबारी की. रातोंरात भारत ने जवाबी कार्रवाई में दोनों मोर्चो पर अपनी हरकत तेज कर दी. भारतीय सेना ने 19 डिवीजन इस दोतरफा मोर्चे पर एक साथ इस जंग में उतारी थी. 

पाकिस्तान के लगभग 42000 सैनिक पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद थे और वायुसेना के नाम पर ज्यादा कुछ नहीं था. 16 दिसंबर को ढाका के रेसकोर्स में एक सादे समारोह में पाकिस्तानी जनरल ए.ए. के. नियाजी ने अपने 93000 अधिकारियों और सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया. 

विश्व के सैनिक इतिहास में अब तक की सबसे छोटी जंग में भारत ने पाकिस्तान को न सिर्फ सैन्य रणनीति में मात दी थी बल्कि राजनीतिक स्तर पर भी हमने एक नई मिसाल पेश की थी.

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