राजेश बादल का ब्लॉग: वह बिंदु, जहां लोकतंत्न में विचार दम तोड़ता है

By राजेश बादल | Published: November 6, 2019 06:54 AM2019-11-06T06:54:13+5:302019-11-06T06:54:13+5:30

महाराष्ट्र में पिछले चुनाव में भाजपा और शिवसेना ने चुनाव पूर्व कोई गठबंधन नहीं किया था. इसके बाद भी दोनों पार्टियों ने मिलकर सरकार चलाई. चुनाव में दोनों को वैचारिक समानता का आधार नहीं दिखाई दिया, लेकिन सरकार बनाने के लिए ये दल समान विचारधारा का कारण बताते हुए साथ आ गए.

Rajesh Badal's blog: The point where ideas die in democracy | राजेश बादल का ब्लॉग: वह बिंदु, जहां लोकतंत्न में विचार दम तोड़ता है

राजेश बादल का ब्लॉग: वह बिंदु, जहां लोकतंत्न में विचार दम तोड़ता है

बहुदलीय लोकतंत्न में कई पार्टियों की मौजूदगी पर ऐतराज क्यों होना चाहिए? इससे धड़कते हुए देश की सेहत का पता चलता है. लेकिन चुनाव में एक दूसरे को गरियाने वाले दल चुनाव के बाद एक ही पलड़े में बैठकर सत्ता का स्वाद लेंगे - यह किसी ने भी नहीं सोचा होगा.

प्रतिद्वंद्वी चुनाव के बाद सरकार में साथ बैठ जाएं तो फिर चुनाव का अर्थ ही क्या? कैसे समङोंगे कि मतदाता ने किस दल की नीतियों को स्वीकार किया है और किसे नकार दिया है. यह मतदाता के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक षडयंत्न नहीं तो और क्या है. विडंबना यह कि इस बेमेल वैचारिक विवाह को कहीं भी चुनौती देने की स्थिति नहीं बनती. भारतीय लोकतंत्न का आधार बहुमत है विचार नहीं. इस तंत्न में सिर गिने जाते हैं, दिमाग नहीं पढ़े जाते.

याद रखिए कि बेमेल विचार गठबंधनों को विवश वोटर नहीं रोक पाया तो भी वे टिकाऊ नहीं रहे. इस विराट देश के लोकतांत्रिक संस्कारों ने उन्हें नकार दिया है. महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के ताजा परिणाम इसे बेहतर ढंग से समझाते हैं.

महाराष्ट्र में पिछले चुनाव में भाजपा और शिवसेना ने चुनाव पूर्व कोई गठबंधन नहीं किया था. इसके बाद भी दोनों पार्टियों ने मिलकर सरकार चलाई. चुनाव में दोनों को वैचारिक समानता का आधार नहीं दिखाई दिया, लेकिन सरकार बनाने के लिए ये दल समान विचारधारा का कारण बताते हुए साथ आ गए.

इस बार दोनों राजनीतिक दल साथ-साथ चुनाव मैदान में उतरे. आधार वैचारिक समानता ही बताया गया था. लेकिन अब वही वैचारिक समानता गायब है. मुख्यमंत्नी पद के लिए मित्न पार्टियों के बीच रस्साकशी चल रही है. शिवसेना को लगता है कि बीते वर्षो में उसने खून के बहुत घूंट पिए हैं. संभव है कि उनकी पीड़ा जायज हो. पर यह भी सच है कि सरकार में बने रहने के लिए वे अपमान सहते रहे.

बड़ा भाई छोटा बन गया और अब छोटे भाई को बौना ही बनाने पर उतारू हो तो फिर शिवसेना क्या करे? इसीलिए उद्धव ठाकरे भाजपा से कह रहे हैं कि वह शिवसेना से वही व्यवहार करे जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है. भाजपा अपने वर्तमान श्रेष्ठता बोध के खोल में बंद है और शिवसेना अपने अतीत के. चुनाव प्रक्रिया के अलग-अलग पड़ावों पर वैचारिक आधार भी हाशिए पर चला जाता है. मतदाता की इस कसक को कौन समझेगा।

इस बीच राजनीतिक घटनाक्र म संकेत दे रहा है कि भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए एनसीपी और कांग्रेस शिवसेना को समर्थन देने पर विचार कर सकती हैं. अगर दोनों दलों ने यह विकल्प खुला रखा है तो यह बहुत परिपक्व सोच नहीं है. ठीक वैसा ही, जैसे भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत की बात करती है. संवैधानिक ढांचे में आप किसी पार्टी को पराजित करने की बात कहें तो किसी को ऐतराज नहीं, लेकिन किसी पार्टी से देश को मुक्त करने की मानसिकता नकारात्मक ही है. किसी दल को सरकार से बाहर रखने के लिए परस्पर खांटी विरोधी गठबंधन एक साथ आ जाएं - यह अच्छी परंपरा नहीं है इसलिए अब साफ हो चला है कि नतीजों के बाद मतदाता की भावना और जनादेश का आदर राजनेता नहीं करना चाहते. चुनाव दर चुनाव यह धारणा और पुख्ता होती जाती है. दूसरे प्रदेश हरियाणा में भी यही हुआ है. प्रचार में जो पार्टी भाजपा को काटने को दौड़ती रही, उसी के साथ सरकार में बैठी है. अपने उपमुख्यमंत्नी को मुख्यमंत्नी गप्पू बता कर लांछित करते रहे, अब उसी बैसाखी पर टिके हैं. चंद रोज में ही इस कृत्रिम गठबंधन में दरारें नजर आने लगी हैं. एक समय हरियाणा में ही आयाराम-गयाराम का अलोकतांत्रिक नाटक खेला गया था. बाद में प्रदेश के मंच पर इतनी बार बेशर्मी के साथ खेला गया कि अब राज्य के मतदाताओं ने इस पर ध्यान देना बंद कर दिया है. लगता है कि सत्ता के लिए अनैतिक गठबंधनों को देखकर अब मतदाताओं में आक्रोश पैदा नहीं होता. मतदाताओं को इस्तेमाल कर लेने के बाद दूध में से मक्खी की तरह बाहर कर देने के प्रयास क्या किसी अघोषित राजतंत्न की ओर इशारा नहीं करते.
वैसे भारत की सियासत में अभी तक तो आधे कार्यकाल तक मुख्यमंत्नी का पद बांटने के प्रयोग कामयाब नहीं रहे हैं, न ही बेमेल वैचारिक गठबंधन लंबे समय चले हैं. केंद्र में अनेक बार यह सिद्ध हो चुका है. आपातकाल में जनता पार्टी का गठन भी इसी असमान विचारधारा के जबरिया समागम से हुआ था. इंदिरा गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए अलग-अलग वैचारिक धरातल पर खड़े दलों ने एक प्लेटफॉर्म चुन लिया था. याद कीजिए 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार त्रिशंकु थी. एक तरफ वामपंथी समर्थन तो दूसरी ओर धुर वाम विरोधी भाजपा का भी समर्थन था. यहां भी राजीव गांधी को रोकने का कुचक्र था. परिणाम क्या निकला. मतदाताओं ने सिर धुन लिया. ध्यान रखना होगा कि नकारात्मक राजनीति मतदाताओं को बहुत रास नहीं आती. सवाल यह है कि इस राजनीतिक मानसिकता का मुकाबला किस तरह किया जा सकता है? क्या कोई उपाय है, जिससे इस राजनीतिक गंगा को प्रदूषण मुक्त किया जा सके. विचार की पुनस्र्थापना के प्रयास अगर सिविल सोसाइटी की ओर से नहीं हो सकते तो माफ कीजिए यह सवाल स्वाभाविक है कि हमने अक्षर ज्ञान तो सीख लिया, लेकिन क्या दिमागी सफर थम चुका है. कैसा विरोधाभास है कि जब साक्षरता का प्रतिशत 40 से 50 फीसदी था तो हमारे सियासी पूर्वज अधिक जिम्मेदार और सिद्धांतों के लिए समर्पित थे. संसद व विधानसभाओं में उन दिनों इतने पढ़े लिखे लोग निर्वाचित होकर नहीं आते थे मगर विचारों पर कायम रहते थे. जैसे जैसे भारत अत्याधुनिक होता जा रहा है तो हम राजनीति का यह पतन देख रहे हैं.

Web Title: Rajesh Badal's blog: The point where ideas die in democracy

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