राजेश बादल का ब्लॉग: अतीत की नींव पर ही बनता है सपनों का महल 

By राजेश बादल | Published: January 1, 2019 05:19 PM2019-01-01T17:19:33+5:302019-01-01T17:19:33+5:30

2019 की पहली सुबह हमें अवसर देती है कि उन पूर्वजों के सुकर्मो को याद करें, जिनकी बदौलत हम आज यहां हैं अन्यथा अंग्रेज तो हमें आदिम गुफाओं में भटकने के लिए छोड़ गए थे.

Rajesh Badal's Blog: The Palace of Dreams is built on the foundation of the past | राजेश बादल का ब्लॉग: अतीत की नींव पर ही बनता है सपनों का महल 

राजेश बादल का ब्लॉग: अतीत की नींव पर ही बनता है सपनों का महल 

सदी के 18 साल गुजर गए. अब यह जवान हो चली है मगर हम बूढ़े हो रहे हैं. 19वें साल में अपने आप से अनेक सवाल करते हुए. हजारों साल के इतिहास पर गर्व करते हुए हम हिंदुस्तान की आजादी के बाद के सफर पर किस बात की शर्म कर रहे हैं? तीसरी दुनिया की महाशक्ति बन रहे हैं और राजनेता गाल बजाते हैं कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ. अपने अज्ञान पर संसार के सामने विदूषक की तरह हम खड़े हैं. राजनीतिक मतभेदों का अर्थ राष्ट्रीय गर्व के हिमालयों से आंख मूंद लेना नहीं होता. विश्व को जीवन दर्शन और विकास की नई अवधारणाएं देने वाले हम भारत के लोग सियासत की काली चादर में दुबक रहे हैं,  जिसे जिंदगी के तमाम रंग नहीं दिखाई देते.

2019 की पहली सुबह हमें अवसर देती है कि उन पूर्वजों के सुकर्मो को याद करें, जिनकी बदौलत हम आज यहां हैं अन्यथा अंग्रेज तो हमें आदिम गुफाओं में भटकने के लिए छोड़ गए थे. उस दौर की हकीकत बयां करने के लिए चार - छह उदाहरण ही पर्याप्त होंगे. याद करिए 1941 के बंगाल के अकाल को, जिसमें लाखों जानें गई थीं. कोयंबटूर कलेक्टर को किसानों ने लगान नहीं चुका पाने के कारण कहा था - हम कपास इसलिए उगा रहे हैं क्योंकि उसे खा नहीं सकते. यदि अनाज उगाते तो उसे खा लेते. फिर लगान भरने को पैसा कहां से आता? अब कपास बेचकर आधे पेट रहते हुए लगान तो चुका सकते हैं. आजादी के बाद बड़े मुल्कों से गेहूं के लिए भीख मांगते थे. सन 1951 में अमेरिकी संसद हमें गेहूं देने पर शास्त्नार्थ करती रही. सोवियत रूस ने 50 हजार टन गेहूं तत्काल भेज दिया. इसके बाद हरित क्रांति हुई.

आज हम अनाज उत्पादन में सीना तान कर खड़े हैं. जिस देश में कभी दूध-घी की नदियां बहती थीं, वह 1947 में यूरोप से दूध पाउडर आयात करता था. वर्ष 2000 आते आते यही देश दुनिया में दूध उत्पादन का सिरमौर बना. एक जमाने में हिंदुस्तानी कपड़ा हर देश की पहली पसंद था. इससे ब्रिटेन का कपड़ा उद्योग चौपट हो गया. डेनियल डिफो ने लिखा, भारतीय कपड़े हमारे घरों, ड्राइंग रूम यहां तक कि बेडरूम में छा गए हैं. हमारे पर्दे, गद्दे और बिस्तर भी हिंदुस्तानी कपड़े के हैं. भारतीय कपड़े को रोकने के लिए कानून बने. नौबत यहां तक आई कि सन 1760 में एक गोरी महिला के पास भारतीय रूमाल मिला तो 200 पौंड जुर्माना भरना पड़ा.

यूरोपीय देशों ने भारत से कपड़ा मंगाना बंद कर दिया. भारी भरकम टैक्स लगा दिए. इसके बाद भी हमारे कपड़े दुनिया भर में धूम मचाते रहे. इस बेईमानी की पोल गोरे इतिहासकार एच. एस. विल्सन ने ही खोली. उसने लिखा, अगर भारतीय माल पर रोक न होती तो  मैनचेस्टर के कारखाने कब के बंद हो चुके होते. उनका जन्म भारतीय कारखानों की बलि देकर हुआ. 

आज भारत अपने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी पर गर्व करता है. इसने 1950 में काम शुरू कर दिया था. 1958 में आईआईटी बॉम्बे, 1959 में आईआईटी मद्रास, 1960 में आईआईटी कानपुर और 1961 में आईआईटी दिल्ली की स्थापना हुई. इस संस्थान से निकले नौजवान आज देश का नाम रौशन कर रहे हैं. परमाणु शक्ति आज हमारी सुरक्षा का कवच है. इसकी नींव दस अगस्त 1948 को पड़ी थी, जब डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग बना. डॉक्टर भाभा ने 1956 में पहले परमाणु रिएक्टर अप्सरा की शुरु आत की. आज 21 परमाणु बिजली उत्पादन इकाइयां काम कर रही हैं.

इनकी उत्पादन क्षमता 6700 मेगावॉट है. स्मरण करिए 1974 का पोखरण परमाणु परीक्षण. इंदिरा गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय दबावों की परवाह नहीं की. परमाणु ऊर्जा में पांच बड़े देशों का एकाधिकार टूट गया. अगर आज हिंदुस्तान परमाणु महाशक्तियों के बराबर खड़ा है तो उसके पीछे 44 साल पुराना संकल्प है. जब सोवियत संघ और अमेरिका जैसे देश अंतरिक्ष उड़ान की तैयारी कर रहे थे तो हमारे वैज्ञानिकों ने 1963 में रॉकेट छोड़कर अंतरिक्ष में हाजिरी लगाई थी. रॉकेट के कलपुज्रे बैलगाड़ियों और साइकिलों पर ढोए गए थे. इसके बाद 1969 में विक्र म साराभाई की अध्यक्षता में इसरो शुरू हुआ और पहला उपग्रह आर्यभट्ट अंतरिक्ष में छोड़ा गया. इसरो इन दिनों विश्व का महत्वपूर्ण संस्थान है. 

गुलाम भारत में हैजा, प्लेग, चेचक और न जाने कितनी महामारियां हर साल लाखों जानें लेती थीं. चिकित्सा शिक्षा - इलाज के अच्छे संस्थान नहीं थे. 1956 में ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज शुरू हुआ. यहां से निकले डॉक्टर दुनिया भर में तिरंगा लहरा रहे हैं. शिक्षा के मामले में भी यही हुआ. आजादी के समय मुल्क में मात्न 20 विश्वविद्यालय थे और 636 डिग्री कॉलेज थे. साक्षरता दर 18 फीसदी थी. सन 1948-49 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, 1954 में ग्रामीण उच्च शिक्षा समिति और 1964-66 में शिक्षा आयोग बनाए गए. कम्प्यूटर के बिना आज जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकते. जब अस्सी के दशक में यह देश में दाखिल हुआ तो भारी विरोध हुआ था. इन दिनों भारत से सॉफ्टवेयर और आईटी सेवाओं का निर्यात 126 बिलियन डॉलर से अधिक है.

दुनिया के आईटी सेक्टर में पचास फीसदी से ज्यादा हिस्से पर भारतीय कंपनियों का कब्जा है. भारत संसार के आईटी उद्योग का आधार बन गया है.  विश्वविद्यालयों की संख्या 903 पर जा पहुंची है और देश में 39,050 कॉलेज हैं. 
कोई मुल्क तब तक तरक्की की इबारत नहीं लिख सकता, जब तक उसके लिए कुर्बानी देने वाले, उसके लिए सपने देखने वाले और उन सपनों को साकार करने की क्षमता वाले लोग न हों.

हमारे पूर्वज ऐसे ही थे. अनेक लोग उनकी आलोचना भी करते हैं. वे ऐसा करने के लिए आजाद हैं. मगर सच है कि अगर आजादी के बाद विकास की नई मंजिलें इस मुल्क ने तय न की होतीं तो आज भी हम छोटी-छोटी चीजों  के लिए जद्दोजहद कर रहे होते - पाकिस्तान की तरह. 

Web Title: Rajesh Badal's Blog: The Palace of Dreams is built on the foundation of the past

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