राजेश बादल का ब्लॉग: अब तो दल बदलने पर अपराध बोध भी नहीं होता
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 19, 2019 07:22 AM2019-03-19T07:22:07+5:302019-03-19T07:22:07+5:30
पुराने दिनों को याद करें तो पाते हैं कि साठ और सत्तर के दशक में अनेक छोटी पार्टियों से नेताओं का यह निर्बाध आवागमन तत्कालीन राजनीति में चिंता का सबब बन गया था। स्वतंत्न पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी, प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी, हिंदू महासभा, जनसंघ, लोकदल, भारतीय क्रांति दल, जनता पार्टी तथा अन्य पार्टियों के बिखराव ने इस प्रवृत्ति को जन्म दिया।
चुनाव के मौसम में दल-बदल की बहार है। एक राजनीतिक दल दूसरे दल में सेंध लगाता है। दूसरा, तीसरे में और तीसरा चौथे में। एक-दूसरे की पार्टी के नेताओं में सुरखाब के पर लगे नजर आते हैं। अपने दल के समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की जाती है और आयातित नेताओं को सिर पर बिठाया जाता है। राजनीतिक दलों का यह शिकार कार्यक्र म हाल के कुछ वर्षो में तेज हुआ है। कपड़ों की तरह पार्टियां बदलने की आदत अब आलोचना का विषय नहीं मानी जाती और न ही राजनेताओं को कोई शर्म महसूस होती है। सवाल यह है कि लोकतंत्न में यह प्रक्रिया कितनी जायज है या नैतिक आधार पर कितनी उचित है?
पुराने दिनों को याद करें तो पाते हैं कि साठ और सत्तर के दशक में अनेक छोटी पार्टियों से नेताओं का यह निर्बाध आवागमन तत्कालीन राजनीति में चिंता का सबब बन गया था। स्वतंत्न पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी, प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी, हिंदू महासभा, जनसंघ, लोकदल, भारतीय क्रांति दल, जनता पार्टी तथा अन्य पार्टियों के बिखराव ने इस प्रवृत्ति को जन्म दिया। उस दौर की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में भी टूटफूट नेताओं के इधर-उधर जाने का सबब बनी रही। हालांकि इस दल परिवर्तन में नेता इस बात का ध्यान रखते थे कि नया दल उनकी विचारधारा से मेल खाता है या नहीं। बाद में तो यह सब छिन्न-भिन्न हो गया। मुख्यमंत्नी सहित सारा मंत्रिमंडल तक दल बदलने लगे। आयाराम-गयाराम के मुहावरे ने इन्हीं दिनों जन्म लिया। गंभीर और सरोकारों से जुड़े राजनेताओं के लिए यह लोकतंत्न पर एक तरह से आक्र मण जैसा था। दल बदल का मकसद सिर्फ सत्ता की मलाई खाना रह गया था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तो 1968 में यशवंतराव बलवंत राव चव्हाण की अध्यक्षता में एक समिति भी बनाई थी। मगर उसका कोई कानूनी समाधान नहीं निकला। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्नी बने तो उन्होंने इस सियासी बीमारी से निपटने के लिए क्रांतिकारी पहल की और 1985 में दोनों सदनों ने विधेयक पारित किया। इसके बाद दल-बदल विरोधी कानून अस्तित्व में आया। बुनियादी तौर पर यह एक अच्छा कानून था। साफ-सुथरी राजनीति के हिमायती राजीव गांधी को इसका श्रेय मिला, लेकिन बाद में इसके भी चोर दरवाजे नजर आने लगे। आज भी इसमें अनेक संशोधन जरूरी माने जाते हैं।
दल-बदल का मौजूदा दौर शर्मनाक है। बीते बरसों में हमने देखा है कि चुनाव में ए पार्टी का टिकट मिलने के बाद भी उम्मीदवार बी पार्टी का नामांकन पत्न भर देता है। मध्य प्रदेश में भागीरथ प्रसाद का मामला ऐसा ही है। इसी तरह अब पार्टी चुनाव का टिकट न दे तो भी दल छोड़ने की आदत बनती जा रही है। विचारधारा हाशिए पर चली जाती है और निजी स्वार्थ हावी हो जाते हैं। इस हाल में राजनीतिक दल भी इन गिरगिटों का इस्तेमाल उपयोग करो और फेंक दो वाले अंदाज में करते हैं। रंग बदल कर पार्टी बदलने वाले नेता तो अनुयायियों का भी ठेका लेने लगे हैं। वे अपने अपने समर्थक झुंड के साथ पार्टी में शामिल होते हैं। आप इन्हें उनके गिरोह भी कह सकते हैं। इन गिरोहों के सदस्य के रूप में अपराधियों और बाहुबलियों का बोलबाला ही होता है। जब नेता के नई पार्टी में हित नहीं सधते तो ये जिंदाबाद, मुर्दाबाद की राजनीति करने लगते हैं। कुछ नेताओं ने अब दल और गठबंधन बदलने का हुनर हासिल कर लिया है। अवसर देखते ही पार्टी या गठबंधन छोड़ने का महारथ उन्हें आता है। वे सौदेबाजी भी करते हैं। बात नहीं बनती तो छोड़ने में एक मिनट नहीं लगाते। समर्थकों से भी पार्टी छोड़ने का ऐलान कराया जाता है। इस तरह बार-बार पाला बदलने से पहले वे अपने मतदाताओं को भी भरोसे में नहीं लेते। वे समझते हैं कि उनकी विचारधारा या स्वार्थ के साथ मतदाता को भी बदलना चाहिए। वह एक किस्म की सामंतवादी सोच है और आज की सियासत का विद्रूप चेहरा।
बहुदलीय लोकतंत्न में अधिक पार्टियों का होना अगर अनेक विचारों का सम्मान प्रदर्शित करता है तो यह एक किस्म के भ्रष्टाचार और अनैतिक आचरण को भी प्रोत्साहित करता है। राष्ट्रीय हित में सर्वानुमति कठिनाई से बनती है व व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा प्रधान हो जाती है। नई और पढ़ी-लिखी नौजवान पीढ़ी सियासत में आने से बचती है। यह आने वाले समय के लिए कोई सुखद संकेत नहीं है। दलबदल के खिलाफऔर सख्त कानून देश की जरूरत है। क्या हमारे नियंता अपने खिलाफ यह साहसिक फैसला लेंगे?