राजेश बादल का ब्लॉगः चुनावी बुखार से कराहते मतदाता की किसे चिंता?
By राजेश बादल | Published: February 5, 2019 11:35 AM2019-02-05T11:35:55+5:302019-02-05T11:35:55+5:30
एजेंसी के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि अगर बरसों से राजीव कुमार उसे सबूत नहीं दे रहे थे तो सुप्रीम कोर्ट का ध्यान उसने आकर्षित क्यों नहीं किया?
सब कुछ सामान्य नहीं है. लोकतांत्रिक अनुष्ठान अब उत्सव नहीं लगता. अब यह बोझ लगने लगा है. अवाम को अनमने भाव से भागीदार बनना पड़ रहा है. सियासी शतरंज जमाकर बैठे महापुरुषों के लिए यह चौबीस घंटे पूर्णकालिक जलसा हो सकता है, लेकिन देश की नब्ज कुछ और ही संकेत दे रही है. सारा मुल्क जैसे बारहमासी जंग के मैदान में तब्दील हो गया है. राजनीति एक अंधेरी गुफा में भटकती दिखाई दे रही है. कुछ दिनों से बंगाल का घटनाक्र म इसका साक्षी है. असहाय देश केंद्रीय जांच ब्यूरो जैसी शीर्षस्थ एजेंसी की साख तार-तार होते देख रहा है.
प्रश्न यह नहीं है कि कोलकाता के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी राजीव कुमार सीबीआई को असहयोग क्यों कर रहे थे. असल मुद्दा तो यह है कि बरसों पहले सुप्रीम कोर्ट ने चिटफंड घोटाले की जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा था तो उसे पांच बरस बाद सुध क्यों आई? रविवार को छुट्टी की शाम उसके अफसरों को फुर्सत मिली और वह सीधे पुलिस कमिश्नर के घर जा पहुंचे. एजेंसी का कहना है कि पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को चार बार नोटिस दिए गए लेकिन उन्होंने कोई सहयोग नहीं किया. यही नहीं, उन्होंने सबूतों को भी गायब करने का प्रयास किया और उनके साथ छेड़खानी की. मगर एजेंसी के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि अगर बरसों से राजीव कुमार उसे सबूत नहीं दे रहे थे तो सुप्रीम कोर्ट का ध्यान उसने आकर्षित क्यों नहीं किया?
उसे सुप्रीम कोर्ट की शरण में दोबारा इसलिए भी जाना चाहिए था क्योंकि प. बंगाल की निर्वाचित सरकार ने राज्य में सीबीआई को प्राप्त जांच की अनुमति पहले ही वापस ले ली थी. भारत का संविधान राज्य सरकार को यह अधिकार देता है कि सीबीआई बिना राज्य सरकार की इजाजत के अपनी जांच नहीं कर सकती. सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही उसे राज्य में इसके लिए आदेश दे सकता है. विचित्न बात यह भी है कि सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के एटॉर्नी जनरल ने सबूतों से छेड़छाड़ के दस्तावेज पेश ही नहीं किए.
इस मामले में नया तथ्य यह भी है कि दो साल पहले पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार ने सीबीआई के तत्कालीन डायरेक्टर को औपचारिक शिकायत की थी कि एजेंसी पक्षपात कर रही है और उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है. सीबीआई ने इस शिकायत को ठंडे बस्ते में डाल रखा है. इस हाल में एजेंसी का तर्क निराधार है कि राजीव कुमार सहयोग नहीं कर रहे हैं. राजीव कुमार कोई अपराधी नहीं हैं. अगर वे शिकायत कर रहे हैं तो उनकी चिंताओं पर क्यों ध्यान नहीं दिया गया? गौरतलब है कि राजीव कुमार एक स्तर पर खुद भी इस मामले की जांच से जुड़े रहे हैं. फिर उन पर अविश्वास का कारण क्या है?
सीबीआई इस मामले में भी सवालों के घेरे में है कि इस घोटाले के एक आरोपी मुकुल रॉय के पास मौजूद सबूतों और दस्तावेजों पर उसने कोई ध्यान ही नहीं दिया. जब तक राय तृणमूल कांग्रेस में थे, तो आरोपी थे. जैसे ही उन्होंने पार्टी बदली, सीबीआई ने उनके साथ कोई पूछताछ नहीं की. अगर सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की इतनी ही चिंता है तो मुकुल रॉय के मामले में वह अपनी ओर से ढील क्यों दे रही है? जाहिर है एजेंसी के भीतर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है.
अगले लोकसभा चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं बचा है. इसलिए इन दिनों जो भी गतिविधियां हो रही हैं, वे राजनीतिक और चुनावी मुलम्मा लपेटे हुए हैं. मतदाता यकीनन यह जानना चाहेंगे कि सीबीआई ने वही दिन क्यों चुना, जिस दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्नी के हेलिकॉप्टर को प. बंगाल में उतरने की अनुमति नहीं मिली. एक दिन पहले प्रधानमंत्नी की सभा में भी भगदड़ और हिंसा में कुछ लोग घायल हुए थे. उन्हें अपना भाषण अधूरा छोड़ना पड़ा था. सोमवार को भारतीय जनता पार्टी ने रैलियों का मुद्दा चुनाव आयोग के समक्ष उठाया. लेकिन आयोग इस मामले में अभी कुछ नहीं कर सकता क्योंकि अभी लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लागू नहीं है. आम दिनों में किसी रैली की अनुमति का आयोग से कोई लेना-देना नहीं है. भारतीय निर्वाचन अधिनियम में इसका साफउल्लेख है.
जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहे हैं, राजनीतिक दल और अधीर हो रहे हैं. वे संयम का बांध तोड़ रहे हैं. एक-दूसरे की छवि और प्रतिष्ठा गिराने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे हैं. आम आदमी उनके इन राजनीतिक रूपों को बहुत अच्छी नजर से नहीं देख रहा है. राजनीतिक जहर के कारण हिंदुस्तान के इस विराट और प्राचीन लोकतंत्न की पहचान धुंधली हो रही है.