राजेश बादल का ब्लॉग: हिमालयी जीत के बाद चुनौतियां भी पहाड़ जैसी हैं
By राजेश बादल | Published: May 28, 2019 05:40 AM2019-05-28T05:40:18+5:302019-05-28T05:40:18+5:30
प्रश्न यह है कि अब इस राष्ट्र-राज्य में प्रतिपक्ष किस धरातल पर खड़ा है? क्या वह अपनी इतनी महीन उपस्थिति से लोकतंत्न के मजबूत तार खींच कर रख सकेगा? यदि नहीं तो संतुलन बनाने में इस महान देश के करोड़ों नागरिक क्या कर सकते हैं.
इतना विराट पक्ष और कितना बारीक विपक्ष. भारतीय लोकतंत्न की एक अद्भुत तस्वीर. एक की झोली भरपूर और दूसरे के दामन में धूल. चारों दिशाओं से एक ही सवाल कि चक्रवर्ती विजय का संदेश लेकर आए बादलों के पीछे कहीं तानाशाही के आक्रामक घुड़सवार तो नहीं छिपे हैं. हिमालयी जीत का बोझ संभालना बहुत आसान नहीं है. लेकिन दुर्बल प्रतिपक्ष भी इन घुड़सवारों का मुकाबला करने में कितना सक्षम है? इसमें संदेह नहीं कि किसी भी दल के लिए इतनी बड़ी जीत के बाद अपने कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाना सरल हो जाता है.
लगातार दस साल का कार्यकाल नई और मौलिक नीतियों का निर्माण करने और उनसे अवाम को लाभ पहुंचाने के लिए काफी होता है. इसके बाद किसी जननायक को यह शिकायत करने का अधिकार नहीं रह जाता कि उसे समय नहीं मिला अथवा कुछ और वक्त होता तो समस्याएं सुलझ जातीं. वह लगातार पूर्ववर्ती सरकारों पर भी नाकामी का ठीकरा नहीं फोड़ सकता. हिंदुस्तान में ऐसे विरले अवसर ही आए हैं, जब किसी प्रधानमंत्नी को अपने सपनों का देश रचने का मनचाहा मौका मिला हो. इस दृष्टि से जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ऐसे ही भाग्यशाली प्रधानमंत्नी कहे जा सकते हैं. दस बरस तक एक देश को शिल्पी की तरह गढ़ने का अवसर इतिहास सबको नहीं देता. यश के शिखर पर पहुंचने की पूरी संभावनाएं उनके पास हैं, मगर शिखर से गुमनाम हो जाने के खतरे भी कम नहीं हैं.
प्रश्न यह है कि अब इस राष्ट्र-राज्य में प्रतिपक्ष किस धरातल पर खड़ा है? क्या वह अपनी इतनी महीन उपस्थिति से लोकतंत्न के मजबूत तार खींच कर रख सकेगा? यदि नहीं तो संतुलन बनाने में इस महान देश के करोड़ों नागरिक क्या कर सकते हैं. अतीत के अनेक अध्याय इस तरह की चिंताओं से भरे पड़े हैं कि मुल्क में रचनात्मक और सार्थक विपक्ष के नहीं रहने से जनता का बेहद नुकसान हुआ है. करीब-करीब सभी राजनीतिक दल चुनाव से पहले अपने वचन पत्न या घोषणा पत्न में ढेर सारे वादे करते हैं. विजयी होते ही उनकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं.
वे समस्याएं हाशिए पर चली जाती हैं, जिनको चुनावी रैलियों में जोर-शोर से उठाया जाता है. इसे रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए. केंद्रीय चुनाव आयोग ने अनेक बार इस मसले पर जोर दिया है. उसने कहा है कि सिर्फ चुनाव जीतने के लिए लोक-लुभावन वादों और मुफ्त उपहारों का सिलसिला बंद होना चाहिए. लेकिन इस सुझाव पर ध्यान देने की फुर्सत अभी तक किसी भी पार्टी को नहीं मिली है. राजनीतिक दलों की इस हीला-हवाली ने अनेक समस्याओं को सत्तर साल से जिंदा रखा है. 1947 के बाद अस्तित्व में आए कई राष्ट्रों को आज हम ईष्र्या से देख रहे हैं.
गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और मौलिक शोध का अकाल ऐसे ही कुछ मसले हैं, जो भारतीय लोकतंत्न के एक कदम आगे बढ़ने पर उसे दो कदम पीछे धकेल देते हैं. विपक्ष ने सरकार को कोसने के अलावा कोई रचनात्मक योगदान नहीं दिया है. विडंबना है कि एक पार्टी जब सरकार में होती है और अपनी महत्वाकांक्षी योजनाएं लागू करने का प्रयास करती है तो विपक्ष हर कीमत पर उसकी राह में अड़ंगे लगाता है. जब विपक्ष सरकार में आता है तो उन्हीं योजनाओं पर अपना मुलम्मा चढ़ा अमल में लाता है. मनरेगा और जीएसटी क्या ऐसे ही कार्यक्रम नहीं हैं? सिर्फ विरोध के लिए विरोध की मानसिकता से विपक्ष को उबरना होगा.
चार दशक पहले संसद जितनी गंभीरता से काम करती थी, आज उसकी छाया भी नहीं दिखाई देती. आधी सदी पहले आबादी आधी थी और संसद आज के मुकाबले दोगुना अधिक काम करती थी. आज आबादी दो गुना से भी अधिक हो गई है और संसद में काम घटकर आधा रह गया है. पूरा सत्न हंगामे की बलि चढ़ जाता है. कुल जमा सौ दिन भी काम नहीं होता. आधी सदी पहले हिंदुस्तान की चुनौतियां भी कम थीं. आज ढेरों देसी और परदेसी सिरदर्द हैं पर हमारे राजनेताओं के माथे पर शिकन भी नहीं दिखाई देती. कभी पक्ष इसके लिए जिम्मेदार होता है तो कभी विपक्ष. एक महाशक्ति के रूप में उभर रहे देश के असली सरोकारों पर संसद में चर्चा अब दुर्लभ हो गई है. सदनों के स्पीकर और चेयरमैन बेबस तथा असहाय दिखाई देते हैं.
इन दिनों राजनेताओं की गिरती साख और सियासत में अच्छे लोगों का अकाल भी सत्ताधारी पार्टी और प्रतिपक्ष के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए. स्वतंत्नता के बाद यह मांग उठी थी कि चुनाव लड़ने के लिए कम से कम ग्रेजुएट होना अनिवार्य कर देना चाहिए. उस समय साक्षरता का प्रतिशत कम होने का हवाला देकर इस सुझाव को खारिज कर दिया गया. आज देश की बहुसंख्य आबादी साक्षर है तो राजनीति में प्रवेश की योग्यता स्नातक करने में किसी भी सरकार को क्यों हिचकना चाहिए. अच्छे और कुशल नायकों का नेतृत्व भारत की तस्वीर और तकदीर बदलने के लिए बेहद जरूरी है.